गीत/नवगीत

तिरंगे का दर्द

राष्ट्रध्वज कभी-कभी अपना अपमान देखकर संभवत: यही सोचता होगा–

हूँ भारत के स्वाभिमान का उन्नत-गर्वित माथा मैं
भारत माता का आँचल और बलिदानों की गाथा मैं
इस माटी के वीरों की मैं इक रंगीन निशानी हूँ
खूनी स्याही से लिक्खी मैं अनमिट एक कहानी  हूँ
मेरे लहराते दामन में तूफानों का लेखा है
अगणित आँधी के वेग को मैंने झुकते देखा है
देखा है मैंने पतझड़ में लुटती हुई बहारों को
लोहित की लहरों में डूबी नदियों और किनारों को
कई बवंडर मेरे कदमों में आकर थम जाते थे
अत्याचारी-भँवर सहम हिमखंडों से जम जाते थे
हूँ गवाह मैं बैसाखी की चीखों और गुनाहों का
जलियाँवाला बाग से उठती सिसकी और कराहों का
मैंने नरमुंडों से मंडित वंदनवारें देखी हैं
कलियों के कदमों में भी झुकती तलवारें देखी हैं
मेरा शीश उठाने जाने ना कितने सिर झूल गये
मेरी ख़ातिर कितने दीवाने घर अपना भूल गए
मैंने हिमशिखरों पर खोई कई शहादत देखी है
सर्द हवाओं की दीपों के संग शरारत देखी है
मैं भारत के नीलगगन पर उड़ती जमुना-गंगा हूँ
भारत के स्वर्णिम गौरव का मैं प्रतिमान तिरंगा हूँ।…..

मैं भारत के रणवीरों की आँखों का ध्रुव तारा था
मेरे साए को छू कर खिल जाता हर अंगारा था
मुझको अंबर तक पहुँचाने तन खंडित हो जाते थे
मेरी लाज बचाने डोरे भी रंजित हो जाते थे
बदला मौसम, बदली आँखें और साथी सब बदल गये
मुझपर मरने-मिटने वाले सेनानी तक बदल गये
याद आता है मुझको मेरे उत्कर्षों की वे रातें
प्राणों को न्योछावर करती उत्सर्गों की वे बातें
टूटे सपनों को सहलाता लहराता रह जाता हूँ
आजादी वाले भारत में भी आँसू बरसाता हूँ
मैंने अपने अवशेषों को भू पर गिरते देखा है
अपने स्वाभिमान को कदमों तले कुचलते देखा है
मेरे उन्नत काँधे उस  दम लज्जा से झुक जाते हैं
सेना के आगे जब दुश्मन मुझको आग लगाते हैं
बन जाता हूँ कभी तमाशा सत्ता के गलियारों में
मुझे घसीटा जाता बस्ती घाटी और बाज़ारों में
मेरी कसमें खाने वाले मुझको ही छल जाते हैं
उस पल मेरे सारे सपने मिट्टी में मिल जाते हैं
हूँ कपड़े का टुकड़ा लेकिन फिर भी पूरा नंगा हूँ
भारत के स्वर्णिम गौरव का मैं प्रतिमान तिरंगा हूँ।…..

क्यों खामोश बने बैठे सब जो ये इज़्जतवाले हैं?
क्या सेना वाले ही मेरी इज़्जत के रखवाले हैं?
क्यों न भारत-भू के बेटे अपना धरम निभाते हैं?
नमक मेरा क्या केवल योधा सेना के ही खाते हैं?
मुझ पर मिट जाने को अब होता क्यों संग्राम नहीं?
रावण हैं इतने सारे पर मिला एक भी राम नहीं!
जो परिभाषाएँ कानूनों की संसद में गढ़ते हैं
क्यों ना वे इतिहास उठाकर मातृभूमि का पढ़ते हैं?
जो मेरा सम्मान नोंचते उन खूंखार परिंदों को
फाँसी पर सीधे लटका दो उन गद्दार दरिंदों को
एक विधान बना दो ऐसा कि वह सिर कट जाएगा
जो मेरे दामन को छूने क़ातिल-हाथ बढ़ाएगा
नागों के डसने का कोई मौसम ख़ास नहीं होता!
आसतीन के साँपों पर बिलकुल विश्वास नहीं होता
रह जाएगा मान मेरा भारत का सिर रह जाएगा
मातृभूमि का गौरव जग में मिटने से रह जाएगा
कह दो क़ातिल-गद्दारों से होगा युद्ध-विराम नहीं
बेईमानों का इस धरती पर अब तो कोई काम नहीं
तन कर खड़ा बहुत हूँ लेकिन ना मैं अच्छा-चंगा हूँ
भारत के स्वर्णिम गौरव का मै प्रतिमान तिरंगा हूँ।
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शरद सुनेरी