मेरी कहानी 157
अपने भमरा जठेरों के दर्शन करके हम घर आ गए। एक दिन हम पोस्ट ऑफिस में चले गए जो गियान की दूकान के पास ही हैं। इस पोस्ट ऑफिस से हम ने किसान पत्र खरीदे हुए थे, जो अब मैच्योर हो चुक्के थे। कुछ तो हम ने इंगलैंड से आते ही कैश करा लिए थे और शेष हम ने कैश करा के दुबारा नए किसान पत्र ले लिए। इन किसान पत्रों का हमें बहुत फायदा होता था क्योंकिं गाँव आते ही हम जरुरत के मुताबिक कैश करा लेते थे। इन में से हमारी सारी शॉपिंग हो जाती थी। इंगलैंड से हम सिर्फ किराया खर्च करके ही आते थे। जितने पैसों की हम ने शॉपिंग करनी होती थी, उतना ही सूद मिल जाता था और हमारे हिसाब से सारी शॉपिंग फ्री में हो जाती थी। अगर कुछ बच जाते तो और किसान पत्र खरीद लेते। जब पोस्ट ऑफिस में आये तो दो लड़कों ने जो बैगों में चिठीआं बगैरा डाल रहे थे,हमें देख कर हमारी तरफ आये और मेरे पैर छूए, कुछ हैरान हो कर मैंने उन से पुछा कि वोह कौन थे। उन्होंने अपने बाप का नाम बताया और यह भी बताया कि जब एक दफा मैं गाँव आया था तो वोह बहुत छोटे थे। क्योंकि पोस्ट ऑफिस उस मुहल्ले के नज़दीक ही है यहां मैं पैदा हुआ था और मेरा बचपन बीता था, यानी जट्ट मुहल्ला , इस लिए मैंने उन लड़कों के साथ उस मुहल्ले के बहुत लोगों की बात की और वोह लड़के भी बहुत खुश हुए। पोस्ट ऑफिस में एक पोस्ट मास्टर और यह दो लड़के, तीनों ही थे। उस वक्त लड्डू चालीस रूपए किलो होते थे, पोस्ट ऑफिस से आते वक्त मैंने उन तीनों को सौ रूपए दे दिए कि वोह इन से मुंह मीठा कर लें। वोह खुश हो गए और हम गियान की दूकान की तरफ चले गए। गियान ने हाथ जोड़ कर हमें सत सिरी अकाल बुलाई। उस वक्त ज़िआदा बातें नहीं हो सकीं क्योंकि गियान चन्द कुलवंत के सामने बातें करने से कुछ झिझक रहा था। पांच मिंट बातें करके और रात को आने का वादा करके हम वापस घर आ गए।
हमारे पास ज़िआदा दिन नहीं थे। निर्मल पुरानी फोटो का एक बॉक्स ले कर आ गया, जिस में पुरानी फोटो थीं। मैं चाहता था कि मुझे मेरी उन दिनों की फोटो मिल सके जो बचपन में मैंने दादा जी के साथ फगवाड़े जा कर खिचवाई थी लेकिन यह मिल नहीं रही थी । उस वक्त मैं छै सात साल का हूँगा और मेरे पिता जी ने मेरी फोटो माँगी थी। हमारी माँ जिस को हम बीबी कहते थे, उन की फोटो काफी थीं। माँ के साथ बीते बचपन के दिनों के बारे में तो मैंने बहुत कुछ लिखा है लेकिन उन के आख़री सालों के बारे में नहीं लिखा जो अब ही याद आया है। सोचता हूँ कुछ कुछ लिख दूँ। यूँ तो कभी कभी इंडिया हम आ ही जाया करते थे और माँ के साथ बहुत अच्छे दिन बीतते थे। हमेशा हम या तो अक्तूबर नव्वम्बर में आया करते थे, या फरवरी के शुरू में , क्योंकि इन दिनों में मौसम बहुत अच्छा होता है। सुबह को माँ, निर्मल की सर्जरी के पास सुबह की धुप का मज़ा लेने के लिए दीवार के साथ एक चारपाई पर बैठा करती थी और पास ही एक लकड़ी का पुराना बैंच होता था, या तो हम चारपाई पर माँ के पास ही बैठ जाते और या बैंच पर। पास ही एक गाये बंधी होती थी, पास ही एक चारा काटने वाली मशीन और इस के एक ओर तकरीबन एक मरला प्लाट में निर्मल ने सब्ज़ियाँ बीजी होती थीं। गाँव के इस सादे वातावरण में मुझे बहुत ख़ुशी मिलती थी। कभी कभी यहां बैठ कर गन्ने भी चूसते रहते । जितनी देर हम गाँव में रहते, हम स्ट्रैस फ्री होते थे और वापस इंगलैंड आते ही घर में कितने ही बिल आये होते, जिन को देख कर फिर वोह ही स्ट्रैस शुरू हो जाता। इस लिए यह दिन हमारे लिए मज़ेदार हॉलिडे होती थी।
मुझे अच्छी तरह याद नहीं, शायद 1995 की बात होगी। हमारे बड़े भाई अफ्रीका से इंडिया आये थे । कुछ दिन इंडिया रह कर उन्होंने माँ का पासपोर्ट बनाया और अफ्रीका जाते समय माँ को भी साथ ले गए। एक साल वोह कीनिया में रही और माँ की ख़ाहिश थी कि वोह मुझे भी मिले। मुझे माँ के संदेशे बहुत आ रहे थे कि मैं उस को बुला लूँ। बड़े भाई माँ को भेजने में कुछ आनाकानी कर रहे थे। फिर मैंने उन को टेलीफोन किया कि मैं माँ के लिए टिकट भेज रहा हूँ और फिर मैंने टिकट भेज दिया। जिस दिन माँ ने लंडन हीथ्रो आना था, मैं कुलवंत और संदीप, बड़े भाई के बेटे, यानी अपने भतीजे के घर पहुँच गए। हम ने प्रोग्राम इस तरह बनाया हुआ था कि संदीप एयरपोर्ट पर माँ के एयरपोर्ट पर पहुंचने की सारी वीडियोग्राफी करेगा। एअरपोर्ट पर चार पांच वजे शाम का वक्त था। मेरे बड़े भाई का बेटा दर्शन यानी मेरा भतीजा, उस की पत्नी और उनके तीनों बच्चे और उधर मेरी बहन सुरजीत कौर और जीजा, भैया सेवा सिंह, भानजी सुदर्शन, उस के पति तरलोच और उन की दोनों बेटियाँ, और इधर मेरा भांजा तेजिंदर अपनी पत्नी और दो बेटियों के साथ आया हुआ था। सारा परिवार इकट्ठा हो जाने से एअरपोर्ट पर खूब रौनक थी और बीबी के आने का इंतज़ार बेसब्री से हो रहा था। कस्टम से बाहर आती हुई बीबी के आते ही सब ने तालियाँ बजा दी। बीबी कुछ हैरान हुई पहले तो अजीब घबराहट से सब की ओर देखती रही और जब पहले मैं बीबी के गले लगा तो वोह बहुत खुश हो गई और बार बार कह रही थी, ” गुरमेल ! तूने बहुत अच्छा किया मुझे बुला कर, तुझे सौ गाये का पुन्य लगे “, (माँ के यह लफ्ज़ मुझे हमेशा याद रहेंगे ), मेरे साथ बातें करने के बाद धीरे धीरे सब नें बीबी का पियार लिया। जीजा जी सेवा सिंह बहुत हंसने वाला है और वोह बीबी को बातें कर कर के हंसाने लगा। इस सब की विडिओ संदीप ने बनाई। हँसते हँसते हम गाड़ियों में बैठ कर भतीजे दर्शन के घर की ओर जाने लगे।
जब घर आये तो आते वक्त ही बीबी अपने बैग से टौफियाँ निकालने लगी जो तकरीबन एक किलो होंगी। हमारी माँ यानी बीबी बहुत ही भोली थी। आज भी मुझे उस का वोह भोलापन महसूस होता है, कि कैसे हम को वोह बच्चों की तरह टौफियाँ बाँट रही थी और सेवा सिंह बीबी को हंसा रहा था। सेवा सिंह की एक बात अभी तक मुझे याद है, जब बीबी बैग से टौफियाँ निकाल रही थी तो सेवा सिंह बोला था, ” बीबी ! हमें तो ऐसा लगा था कि तुम पटारी से सांप निकालने लगी हो और तुम ने तो टौफियाँ निकाल ली “, इस पर खूब हँसे थे। सभी के लिए जो बीबी अफ्रीका से लाइ थी, उसी वक्त उस ने दे दिए। सारा परिवार देख कर बीबी की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था, जो उस की बातों से ज़ाहिर हो रहा था। सारी बातें तो मुझे याद नहीं लेकिन खाना खाने के बाद सभी अपने अपने घरों को चले गए और मैं संदीप और कुलवंत बीबी को ले कर अपने शहर की ओर चल पड़े। तीन घंटे का सफर था जो बातें करते करते पता ही नहीं चला और हम अपने घर पहुँच गए। अन्धेरा हो चुक्का था और बीबी घर में ऐसे घूम रही थी जैसे वोह पहले ही यहां रहती हो। बेटे के घर आने की माँ को कितनी ख़ुशी होती है, यह माँ को देख कर महसूस हो रहा था। खाना तो हम खा कर आये थे, इस लिए दूध का एक एक कप लिया और साथ में कुछ और लिया जो याद नहीं। बीबी ने बहुत बातें कीं और बार बार यह ही कह रही थी कि मैंने अफ्रीका से बुला कर बहुत अच्छा किया। क्या हुआ होगा अफ्रीका में मुझे पता नहीं लेकिन लगता था जैसे मेरे पास आ कर वोह बहुत रिलैक्स हो गई हो। हमारा घर कोई बड़ा नहीं है लेकिन इतना छोटा भी नहीं है और हम ने माँ के लिए छोटा बैड रूम रिज़र्व कर दिया और सारा सामान यहां ही रख दिया। कुलवंत ने काम से कुछ छुट्टियाँ ले रखी थीं ताकि बीबी घर में सब कुछ जान ले क्योंकि हम दोनों काम पर जाते थे। मैंने सुबह काम पर जाना था, इस लिए जल्दी सो गया लेकिन बीबी और कुलवंत देर रात तक बातें करती रहीं। दूसरे दिन अपनी ड्यूटी ख़तम करके आया तो दोनों सास बहू बातें कर रही थीं और अब मैं भी उन में शामिल हो गया। कुलवंत ने बताया कि बीबी के पास अच्छे कपडे नहीं थे। उसी वक्त हम बीबी को ले कर कपड़ों की दूकान में चले गए। याद नहीं कितने सूट खरीदे लेकिन यह सब कपड़े बीबी की पसंद के थे। कुलवंत का तो काम ही कपड़े सीने का होता था, इस लिए घर आते ही कुलवंत ने बीबी का नाप लिया और दूसरे दिन सूट तैयार करके बीबी को पहना दिया। परफैक्ट फिटिंग देख कर बीबी बहुत खुश थी।
धीरे धीरे कुलवंत ने बीबी के सभी सूट सी दिए। अब हम बिज़ी हो गए थे। हर वीकैंड पर बीबी को रिश्तेदारों से मिलवाने चले जाते। जब बीबी अफ्रीका से आई थी तो बीबी बहुत कमज़ोर लगती थी, शायद अफ्रीका के मौसम की वजह से होगा और अब बीबी का रंग निखर रहा था और अंग्रेजों जैसा रंग हो रहा था क्योंकि बीबी शुरू से ही रंग की बिलकुल गोरी थी। दिन बहुत अच्छे बीत रहे थे और इधर बीबी की दवाई ख़तम होने को थी क्योंकि 1965 में उसे स्ट्रोक हुआ था और तब से उस को ब्लड प्रैशर की दवाई रोज़ाना लेनी पड़ती थी। जब मैं दवाई के लिए अपने डाक्टर मिस्टर रिखी के पास गया तो उस ने इंकार कर दिया क्योंकि बीबी का इंगलैंड में इंशोरेंस कार्ड नहीं था और वोह देश की शहरी नहीं थी। मिस्टर रिखी ने यह भी हमें बता दिया कि अगर किसी वजह से बीबी को हस्पताल जाना पढ़ गया तो हस्पताल की फीस 500 पाउंड रोज़ाना होगी और कहा कि बीबी को अफ्रीका से आते वक्त इंशोरेंस करा के आना चाहिए था । सुन कर मैं घबरा गया और वापस आ गया। फिर मैंने अपनी बहन को टेलीफोन किया तो उस ने भी अपने डाक्टर से पूछा और उस ने भी दवाई देने से इंकार कर दिया। कुछ दिन ऐसे ही सोचते सोचते बीत गए। एक दिन हम एवीएन सेंटर में शॉपिंग कर रहे थे कि स्टोर में हमारे डाक्टर की पत्नी हमें मिल गई। दोनों पति पत्नी डाक्टर थे। हम ने उस को अपनी समस्या बताई तो वोह कहने लगी कि वोह रिस्क ले लेगी और दवाई दे देगी। हम खुश हो गए क्योंकि हमारी समस्या दूर हो गई थी। दूसरे दिन हम बीबी को मिसेज़ रिखी की सर्जरी में ले गए। उस ने बीबी का ब्लड प्रैशर चैक किया और दवाई दे दी बल्कि उस को आयरन टेबलेट भी दे दी क्योंकि बीबी की आँखों को देख कर ही उस ने बता दिया कि उस का आयरन लो लगता था।
एक दिन मेरी बहन और बहनोई साहब आये और बीबी को अपने पास ले गए। कुछ हफ्ते बाद हमारी बहन का टेलीफोन आया कि बीबी की दवाई ख़तम होने को थी और उन का डाक्टर दे नहीं रहा था, इस लिए मैं अपने डाक्टर से ले कर उन्हें दे आऊं। मैं अपनी डाक्टर के पास गया, उस को समस्या बताई और उस ने एक महीने की सप्लाई मुझे दे दी। दुआई ले कर मैं लंडन बहन को दे आया। कुछ हफ्ते वहां रहने के बाद बीबी का टेलीफोन आया कि मैं आ कर उस को ले जाऊं और एक रविवार को मैं बीबी को ले आया। दिन बहुत मज़े से बीत रहे थे और हम तो काम पर होते थे और बीबी खुद ही अपना खाना गर्म करके खा लेती जो कुलवंत बना कर रख जाती थी। मेरी शिफ्टें ऐसी होती थीं कि मैं कभी एक वजे घर आ जाता और कभी शाम को चार बजे काम पर जाता, इस लिए बीबी के पास मेरा समय काफी बीतता था। जब मैं घर होता तो बीबी को खुद ताज़ा खाना बना के देता। क्योंकि मुझे खाने बनाने का बहुत शौक है, इस लिए मैं नए नए खाने बना कर बीबी को खिलाता। साथ ही मैं बीबी को बाहर ले जाता। उस को तो मैं कुछ ना बताता लेकिन मेरा मकसद उस की एक्सरसाइज कराना होता था ताकि उस का ब्लड प्रैशर कंट्रोल मे रहे। राणी पुर में तो ऐसी कोई समस्या है नहीं थी क्योंकि गाँव में तो यूँ ही एक्सरसाइज हो जाती थी। गर्मियों के दिनों में कुछ महीने यहां अच्छे लग जाते हैं और मैं और बीबी गार्डेन में बैठे फूलों का मज़ा लेते और जब बृक्ष पर ऐपल लगे तो बहुत से ऐपल नीचे ज़मीन पर गिर जाते थे। बीबी एक छोटी सी टोकरी में ऐपल इकठे करती रहती और फिर अपने सर पर रख के किचन की ओर आने लगती और मुझे बहुत पियारी लगती। वोह बार बार हमें कहती कि हम ऐपल खाते क्यों नहीं थे, तो हम हंस पढ़ते कि इतने ऐपल कैसे खाएं।
दिन बीत रहे थे और सरदीआं आ गईं। एक रात बहुत ठंड थी। घर में बैठे टीवी देख रहे थे। मैंने देखा बीबी का चेहरा अजीब सा हो गिया था। वोह उठने की कोशिश करती लेकिन उठ नहीं हो रहा था। कुलवंत भी घबराई सी उठ कर बीबी की कलाई और हाथों की मालिश करने लगी। हम घबरा गए कि किया करें। अगर हम हस्पताल को टेलीफून करते तो उन्होंने पहले मैडीकल कार्ड और डाक्टर का नाम पूछना था। अगर यह बताते कि वोह एक विजटर है तो डाक्टर के बताये मुताबक 500 पाऊंड रोजाना का खर्च था और हस्पताल में कितने दिन लग जाते, यह भी कोई पता नहीं था। हमें तो अपना घर बेचना पढ़ जाता। बीबी को जो हो रहा था, वोह तो हो ही रहा था लेकिन लगता था, मैं भी गिरने वाला था। सोच सोच कर मैंने मिस्ज रिखी के घर टेलीफून कर दिया, हालांकि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। यह भी हमारी खुश्मती ही थी कि टेलीफून मिस्ज रिखी ने उठाया और मैंने अपनी समस्य बताई। मिस्ज रिखी ने कहा कि वोह थोह्ड़ी देर बाद टेलीफोन करेगी। पता नहीं उस ने अपने पति से किया बात की होगी कि पांच मिंट में ही उस का टेलीफोन मुझे आ गया। मिसेज़ रखी बोली, ” आप सीधे हस्पताल ले जाइये और उन को यह बताइये कि हमारी डाक्टर मिसेज़ रखी है, उन को यह मत्त बताइये कि वोह विजटर है, अगर पूछें तो कह दीजिये कि यहीं रहती है ”
मैं और संदीप बीबी को सीधे हस्पताल ले गए। भाग्य ने साथ दिया, उन्होंने सिर्फ डाक्टर का नाम पुछा और ऐडमिट करके सीधे बैड रिजर्व कर दी। वोह समय भी ऐसा था कि हस्पताल में ज़िआदा इंतज़ार नहीं करना पड़ता था, आज तो कई कई घंटे हस्पताल में ऐडमिट होने में लग जाते हैं। बीबी को ऐडमिट करके हम घर आ गए और आगे के प्लैनिंग के बारे में सोचने लगे। सभी रिश्तेदारों को मैंने टेलीफोन कर दिया । गीता का गियान सुनते आ रहे थे कि झूठ बोलना पाप है लेकिन किसी अच्छे काम के लिये झूठ बोला जाए तो वोह सौ सच के बराबर होता है, और यह आज मिसेज़ रिखी ने हमारे लिए कर दिखाया। पता नहीं उस ने कैसे कीया, उस ने बीबी का मैडीकल कार्ड ही बना दिया, जिस की वजह से जब तक बीबी यहां रही, हर तरह की मैडीकल की सहूलत उसे मिलती रही। यह डाक्टर इतनी अच्छी थी कि इस ने मेरी प्राइवेट पैंशन लेने में भी बहुत मदद की थी । अब वोह अपनी बेटी के पास रहती है और कभी कभी कुलवंत को मिल जाती है और घर के सभी सदस्यों का हाल चाल पूछती है। मिसेज़ रिखी ने जो हमारे लिए किया , वोह हम कभी नहीं भूलेंगे। चलता. . . . . . . . .
बहुत रोचक कड़ी भाईसाहब ! माँ के साथ बिताये हुए क्षण अनमोल होते हैं।
बिलकुल सही कहा भाई साहब ,धन्यवाद .
नमस्ते आदरणीय श्री गुरमैल सिंह जी। क़िस्त में माता जी का वृतांत पढ़कर प्रसन्नता हुई वहीँ उनके हस्पताल में भर्ती होने की खबर दुखद है। डॉ. श्रीमती रेखी की सहायता भी प्रसंशनीय है। लेख के अन्य सभी प्रसंग भी रोचक हैं। सादर धन्यवाद्।
मनमोहन भाई , धन्यवाद . जिंदगी में दुःख और सुख धुप छाये की तरह है .
नमस्ते। आपने सही कहा। धन्यवाद्।
प्रिय गुरमैल भाई जी, बीबी की विदेश-यात्रा और मिसेज रिखी की इंसानियत के रेखाचित्र बहुत अच्छे लगे. सब कुछ सामने घट रहा-सा लग रहा था. विदेशों में हैल्थ-क्योर के नियम बहुत कड़े हैं. यहां भी कई लोगों के मकान बिकने की नौबत आ गई थी, क्योंकि यहां उनको कोई मिसेज रिखी जैसी डॉक्टर नहीं मिलीं. बहुत ही रोचक, नायाब व सार्थक एक और कड़ी के लिए आभार.
लीला बहन , क्योंकि आप भी बिदेश में रहती हैं और इस बात को भली भाँती समझती हैं .यहाँ NHS है यानी नैशनल हैल्थ सर्विस और इस की सुभिदा हर टैक्स पेयर को मिलती है लेकिन बाहर से कोई विजटर आये तो उस को पैसे देने पड़ते हैं जो बहुत मह्न्घा इलाज है .मुझे याद है एक आदमी का कोई रिश्तेदार इंडिया से विज़िट करने के लिए आया हुआ था, उस को हार्ट अटैक हो गिया और वोह विचारा गुरदुआरे आ कर लोगों से मदद की गुहार लगा रहा था . आम लोग जब इंडिया से आते हैं तो उन को अपनी हैल्थ इंशोरेंस करवानी चाहिए लेकिन वोह करवाते नहीं, जिस से बाद में मुसीबत आती है .इंडिया में लोगों को इस बात का पता नहीं है .
प्रिय गुरमैल भाई जी, अब इंडिया में लोगों को इस बात का पता है. जब इंडिया से आते हैं, तो उन को अपनी हैल्थ इंशोरेंस करवाकर ही आते हैं. आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. सच में इलाज बहुत महंगा है.
आप ने सही कहा लीला बहन लेकिन पंजाबी अभी इस बारे में जागरूप नहीं हुए . अभी दो घंटे पहले कुलवंत की सखी नश्तर जिस के बारे में मैंने कुछ एपिसोड पहले लिखा था और नश्तर की भरजाई जिस को हम मिल कर आये थे प्राग पुर गाँव में ,वोह तीन हफ्ते के लिए यहाँ आई हुई है और अभी अभी हमारे घर मिलने आई थी, वोह भी इंशोरेंस करा कर नहीं आई ,बस वाहेगुरु भरोसे ही हम पंजाबिओं का काम चलता है .
आदरणीय भाईजी ! ब्रिटेन में बाहरी लोगों के लिए इलाज जैसी मूलभूत सुविधा भी नहीं मिलती पढ़कर आश्चर्य हुआ । लेकिन डॉक्टर श्रीमती रिखी के व्यवहार में भारतीयता की झलक दिखी । यही इंसानियत का रिश्ता बीबीजी के काम आ सका और यही सच्चे भारतीय होने का प्रमाण है । एक और बढ़िया कड़ी के लिए धन्यवाद ।
राजकुमार भाई ,इंगलैंड में हर टैक्स पेयर को मैडीकल सुभिधायें मुफ्त मिलती हैं लेकिन बाहर से आये लोगों को पैसे देने पढ़ते हैं .यहाँ तो आम रिवाज़ है कि जब भी कोई बिदेश में हौलिडे के लिए जाता है तो पहले इंशोरेंस करवाता है . यहाँ इंडिया की तरह जगह जगह डाक्टर की दूकान नहीं होती और अगर कोई दवाई कैमिस्ट शौप से लेनी भी हो तो डाक्टर के लिखे बगैर वोह देते नहीं और अन्य कोई डाक्टर लिख कर दे भी नहीं सकता, यहाँ के क़ानून बहुत सख्त हैं . मिस्ज रिखी ने तो जो हमारे लिए किया हम भूल ही नहीं सकते .