गीतिका/गज़ल
खुल जाती है नित्य नींद एक, नया सबेरा लेकर
अरमानों के विस्तर पर इक, नया बसेरा लेकर
चल देते हैं पाँव रुके बिन, अपनी अपनी मंजिल
ढ़ल जाता दिन रफ़्ता रफ़्ता, नया बसेरा लेकर।।
मिल जातें हैं कहाँ सभी को, खुशियों के दिन ठाँव
दिन में शाम तंग हो जाती, नया बसेरा लेकर।।
जाने कितने उठ जाते हैं, कितने उठा दिए जाते
कितने अम्बर लहराते नित, नया बसेरा लेकर।।
कितने फूल विखर जाते हैं, गुलदस्ते में आकर
कितने चढ़ उतराने लगते, नया बसेरा लेकर।।
हर तारो में नहीं तरंगें, होत न पूनम हर दिन
हर पल चाँद चमकता कैसे, नया बसेरा लेकर।।
गौतम जिसकी ड्योढ़ी जैसी, वैसी चढ़ती पूजा
नीति रीत परताप फले फल, नया बसेरा लेकर।।
— महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
अच्छी रचना !
सादर धन्यवाद विजय सर जी