कहानी

क्षमारूपेण संस्थिता

तेईस वर्ष पहले जब नया मकान बनाकर नीता चावला इस मोहल्ले में आईं थीं उनके बच्चे चार और दो वर्ष के थे।  अब बड़ा बेटा जर्मनी चला गया है।  और छोटा नेवी का इंजीनियर बनकर कोचीन में नौकरी कर रहा है।  मगर मोहल्ले के उन जैसे बच्चों के लिए जो सामने ज़मीन पार्क बनाने के लिए छोड़ी गई थी वह वैसी ही पडी रही।  उसके तीन तरफ सभ्य पढ़े लिखे नागरिकों की कोठियां हैं। पहले कभी यहां आम का बागीचा था। इसलिए आम के तीन चार पेड़ अभी भी खड़े हैं।  बाकी सब ठेकेदार ने प्लानिंग की भेंट चढ़ा दिए।
              तेईस वर्षों के सतत अभियान के पश्चात आखिरकार इस वर्ष पार्क बनाने का काम शुरू हो गया। अन्य लोगों की तरह ही नीता के घर का मुखड़ा भी पार्क के सामने है। गर्मी के मौसम में  ठंडी बयार की आशा से लगभग सबने एक बालकनी भी उसी ओर बनवा रखी है। चावला  साहब  कपड़ा बनाने की मशीनों के कुशल मेकैनिक हैं। उनको देश देशांतर से मशीने ठीक करने का बुलावा आता है। अतः नीता जब अकेली होती है यहीं आकर बैठ जाती है।
              पार्क में काम करनेवाला एक मजदूर अपनी लुगाई के साथ उनके घर के सामने ही आम के पेड़ की घनी छाया में डेरा डालकर दिन काट लेता। शाम को गेट बंद करके सब चले जाते हैं ताकि कोई मलमूत्र से नया स्थान गंदा न करे। सुबह से दोनों जने मिटटी गारा आदि ढोते। करीब ग्यारह बजे स्त्री मटमैली  गुलाबी  धोती का  घूंघट आँखों तक खींचे वहां आती और पेड़ के नीचे  बैठकर थोड़ा सुस्ताती। गठरी से लोटा परात निकालकर नलके पर जाती। बर्तन धोकर पानी भर लाती और दो तीन मुट्ठी आटा गूँध लेती। आसपास से बीनकर लाई सूखी टहनियों को चार ईंटों के  चूल्हे में सुलगाती। पश्चात हाथ से पो कर तवे पर चार मोटी मोटी रोटियां सेंक लेती। रोटी सिंक जानेपर उसी परात को पोंछ लेती और पति को आवाज़ लगाती — ‘ किशोर’ !
             तब तक किशोर नाम का उसका पति पार्क के दूसरे छोर पर अन्य मज़दूरों के साथ बैठा पउआ चढ़ा रहा होता। स्त्री की गुहार सुनकर नलके से हाथ पैर धोता, सर का गमछा खोलकर उससे पोंछता और अपने हिस्से की दो रोटियां गठरी से निकाले प्याज और नमक के साथ खा लेता। उसके बाद वहीँ आम की छाया में गमछा मुंह पर ओढ़कर सो जाता। लुगाई तब अपना खाना खाती। चूल्हा बुझाकर बरतन धो लाती।  फिर वहीँ पेड़ के तने से पीठ टिकाकर बैठे बैठे ऊँघ लेती।
कुछ दिन के बाद नीता ने देखा कि उसका पेट दिखने लगा था।  पर वह वैसे ही काम करती और खाना बनाकर खिलाती। रोज़ एक ढर्रा। न ज़्यादा, न कम।
           एक दिन मरद उस पर बरसने लगा। लुगाई प्याज नहीं लाई थी। मिमियाती सी कोई  दलील दी उसने। वह गरजकर भद्दी भद्दी गालियाँ देने लगा। शराब ज्यादा चढ़ा ली होगी।
           नीता ने महरी शम्मो से कहा कि फ्रिज में एक कटोरा दाल रखी है कल की बची हुई। वह गरम करके उन्हें दे दे। दाल लेने वह स्त्री दरवाजे तक आई तो नीता ने देखा कि वह मुश्किल से अठारह या बीस की होगी। गरम गरम असली घी से तड़की दाल पाकर मरद टूटकर थाली पर पड़ा  और गपागप खाता ही गया।  लुगाई चुपचाप देखती रही। चारों रोटियां वह खा चुका तो लंबी डकार मारी और पानी पीकर वहीँ बैठे-बैठे कुल्ला किया। दूर तक पिच्च से पिचकारी मारी और गमछा तानकर सो गया। लुगाई ने बर्तन समेटे, कटोरा माँज धोकर वापिस देने आई।
           नीता ने पूछा ,  ”क्यों बेटी तूने क्या खाया?”
           उत्तर में वह झेंपकर मुस्कुरा दी। अटक-अटककर बोली, ” दाल रही न ! तौन ज्यादा भुखाय गए। मरद की जात।”
            नीता को उसके मरद पर गुस्सा आ रहा था।  क्यों नहीं एक बार भी उसके लिए सोंचा  ?
काम तो वह भी बराबर का करती है और फिर पेट में बच्चा। शर्मीला से कहा ,” इसे गिलास भर दूध  और आधी डबलरोटी यहीं बैठा कर खिला।”  फिर मजदूरन से बोलीं, ” बेटी तू रोज़ यहां से पहले दूध और रोटी खायेगी फिर खाना बनाना अपने मरद का।”
 किंचित अविश्वास उसके भोले चेहरे पर नज़र आया। पर वह क्षमा की देवी सर झुकाये खड़ी रही मजबूर सी।

*कादम्बरी मेहरा

नाम :-- कादम्बरी मेहरा जन्मस्थान :-- दिल्ली शिक्षा :-- एम् . ए . अंग्रेजी साहित्य १९६५ , पी जी सी ई लन्दन , स्नातक गणित लन्दन भाषाज्ञान :-- हिंदी , अंग्रेजी एवं पंजाबी बोली कार्यक्षेत्र ;-- अध्यापन मुख्य धारा , सेकेंडरी एवं प्रारम्भिक , ३० वर्ष , लन्दन कृतियाँ :-- कुछ जग की ( कहानी संग्रह ) २००२ स्टार प्रकाशन .हिंद पॉकेट बुक्स , दरियागंज , नई दिल्ली पथ के फूल ( कहानी संग्रह ) २००९ सामायिक प्रकाशन , जठ्वाडा , दरियागंज , नई दिल्ली ( सम्प्रति म ० सायाजी विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी एम् . ए . के पाठ्यक्रम में निर्धारित ) रंगों के उस पार ( कहानी संग्रह ) २०१० मनसा प्रकाशन , गोमती नगर , लखनऊ सम्मान :-- एक्सेल्नेट , कानपूर द्वारा सम्मानित २००५ भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान हिंदी संस्थान लखनऊ २००९ पद्मानंद साहित्य सम्मान ,२०१० , कथा यूं के , लन्दन अखिल भारत वैचारिक क्रान्ति मंच सम्मान २०११ लखनऊ संपर्क :-- ३५ द. एवेन्यू , चीम , सरे , यूं . के . एस एम् २ ७ क्यू ए मैं बचपन से ही लेखन में अच्छी थी। एक कहानी '' आज ''नामक अखबार बनारस से छपी थी। परन्तु उसे कोई सराहना घरवालों से नहीं मिली। पढ़ाई पर जोर देने के लिए कहा गया। अध्यापिकाओं के कहने पर स्कूल की वार्षिक पत्रिकाओं से आगे नहीं बढ़ पाई। आगे का जीवन शुद्ध भारतीय गृहणी का चरित्र निभाते बीता। लंदन आने पर अध्यापन की नौकरी की। अवकाश ग्रहण करने के बाद कलम से दोस्ती कर ली। जीवन की सभी बटोर समेट ,खट्टे मीठे अनुभव ,अध्ययन ,रुचियाँ आदि कलम के कन्धों पर डालकर मैंने अपनी दिशा पकड़ ली। संसार में रहते हुए भी मैं एक यायावर से अधिक कुछ नहीं। लेखन मेरा समय बिताने का आधार है। कोई भी प्रबुद्ध श्रोता मिल जाए तो मुझे लेखन के माध्यम से अपनी बात सुनाना अच्छा लगता है। मेरी चार किताबें छपने का इन्तजार कर रही हैं। ई मेल [email protected]