ग़ज़ल
किसी की बात को हम-तुम कहां और कब समझते हैं,
पर अपने काम की होती है तो हम सब समझते हैं
किसी महफिल में भूले से भी तुम दिल की नहीं कहना,
कहो कुछ लोग तो कुछ और ही मतलब समझते हैं
ना जाने जाल कैसा है ये हाथों की लकीरों का,
कि उलझन और बढ़ती है इसे जब-जब समझते हैं
जिन्हें रक्खा था हमने इस चमन की निगहबानी को,
वो पहरेदार अब इसको अपनी मनसब समझते हैं
बुझाने को पेट की आग चलता है आग पर वो,
तमाशाई मगर इसको बस इक करतब समझते हैं
सिखाती है सबक कोई नया हर रोज़ हमको ये,
हम इस जिंदगी को ही अपना मकतब समझते हैं
— भरत मल्होत्रा