पिछड़ता गांव या शहर(कविता)
ऊंची इमारतों से निकलता धुआँ,
पीले पड़े तमाम शाखों के पत्ते,
ये ही तो शहर है ,
जहाँ हर चीज़ बिकती है,
नकली हंसी,नकली एहसास,
और तो और ,
चेहरे पर अपनेपन का मुखौटा लगाये,
नकली रिश्ते भी,
यहाँ सब कुछ मिल जाता है,
लेकिन,
बस तय है हर चीज़ की,
एक कीमत,
इन सौदों से ही तो, हम तरक्की कर रहे हैं,
और शहर ,
कामयाबी की सीढी चढ रहा है,
या,
पिछड़ रहा है
गांव ,
जहाँ कोई सौदेबाज़ी नहीं होती,
जहां प्यार है,अपनापन है,
ज़िन्दा रिश्ते है,
ज़िन्दा एहसास हैं,
पर सब कुछ बेमोल
बस यूं ही मिल जाता है,
फिर क्यूं अपनी जड़ों से जुड़े ,रहने को *पिछड़ापन*कहा जाता है,
और अपने मूल्यों और संस्कारों को रौंद कर आगे बढ़ जाना, *तरक्की*कहलाता है।
#Asma Subhani#