ग़ज़ल : आग सीने में बहुत थी
आग सीने में बहुत थी हम तरल होते रहे
इन थपेड़ो से समय के बस विरल होते रहे
चोट खाये मुस्कुराये दर्द छलका ही नही
मन हुआ पाषाण सा पर द्रग सजल होते रहे
लग रही थी बोलियाँ साहित्य के बाजार में
गा न पाई जिन्दगी बस वो ग़ज़ल होते रहे
वेद गीता उपनिषद थे जिनमे जीवन सार था
हम तो बस हर दौर में टूटी रहल होते रहे
देव और दानव मिले चाहत में अमृत की मगर
साथ विषधर के सदा शिव बस गरल होते रहे
— मनोज श्रीवास्तव