ग़ज़ल
है कितनी तार तार इंसानियत मैं क्या बताऊँ
इंसानियत जो तोले वो तराज़ू कहाँ से लाऊँ
लज्जा नहीँ आती सुनो अब रिश्ते भी बनाने में
माँ बेटे की उमर के तुम्हें प्रेमी प्रेमिका दिखाऊँ
सुनो हो जाएगा प्रलय अगर विश्वास टूट जाए
आ बाघों की ख़ाल में छुपे कुछ भेड़िए दिखाऊँ
मस्तक नहीँ झुकता मेरा तो अंहकारी न समझ
इंसा न मिला ऐसा जिसके आगे ये सर झुकाऊँ
लिख देना मेरा नाम भी ‘जानिब’ किसी पत्थर पे
अब तक तो दोस्ती थी चलो अब दुश्मनी निभाऊँ
— पावनी दीक्षित ‘जानिब’
सुन्दर भाव