ग़ज़ल
कितना चलूँ सम्हलकर किस्मत ये फिसल जाती है
देखा कि देखते देखते तक़दीर बदल जाती है।
जाने कैसी मजबूरी है अपने पर अपना ज़ोर नहीँ
साँसों की लड़ी रफ्ता रफ्ता सीने से निकल जाती है।
कितना दर्द सहा हमने उनको इस बात की खबर नहीँ
वो क्या जाने मिलकर उनसे तबियत ये सम्हल जाती है ।
सिकवा और शिकायत से तू दिल पर ऐसे वार न कर
चाहत का यही तो हासिल है तडपकर उम्र गुज़र जाती है ।
दे कोई सजा मुझे सुन ले अब मुझको इनकार नहीँ
बेवफा न कहना भूल से भी मेंरी रूह तड़प जाती है।
उस मोड़ पे बैठे है ‘जानिब’ अब राह नहीँ आगे क्या करूँ
आते आते लब तक दिल की दिल में ही बात ठहर जाती है
— पावनी दीक्षित ‘जानिब’