कविता : अपने शहर में…
अज़नबी आज अपने शहर में हूँ मैं,
वे सभी संगी साथी कहीं खोगये
कौन पगध्वनि मुझे खींच लाई यहाँ,
हम कदम थे वो सब अज़नबी होगये
अजनबी सा शहर, अजनबी राहें सब,
राह के सब निशाँ जाने कब खोगये
राह चलते मुलाकातें होती जहां,
मोड़ गलियों के सब अजनबी होगये
साथ फुटपाथ के पुष्प की क्यारियाँ,
द्रुमदलों की सुहानी वो छाया कहाँ
दौड़ इक्के व ताँगों की सरपट न अब,
राह के सिकता कण अजनबी होगये
भोर की शांत बेला में बहती हुई,
ठंडी मधुरिम सुगन्धित पवन अब कहाँ
है प्रदूषित फिजां धुंआ डीज़ल से अब,
सारे जल थल हवा अजनबी होगये
शाम होते छतों की वो रंगीनियाँ,
सिलसिले बातों के, न्यारे किस्से कहाँ
दौड़ते लोग सडकों पर दिखते सदा,
रिश्ते नाते सभी अजनबी होगये
वो यमुना का तट और बहकती हवा,
वो बहाने मुलाकातों के अब कहाँ
चाँद की रोशनी में वो अठखेलियाँ ,
मस्तियों के वो मंज़र कहाँ खोगये
हर तरफ धार उन्नति की है बह रही,
और प्रदूषित नदी आँख भर कह रही
श्याम क्या ढूँढता इन किनारों पै अब ,
मेले ठेले सभी अजनबी होगये
— डॉ श्याम गुप्त
बहुत खूब !
धन्यवाद
बहुत खूब !