गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

हमको मिले हुए कई सदियां गुजर गयीं
सागर जहां था वक्त का नदियां उधर बहीं

ग़फ़लत में बागबां रहा लुटता रहा चमन
शाखों से टूट टूट के कलियां बिखर चलीं

किस धातु का बना है ये कलयुग का आदमी
पत्थर पिघल गये मगर अंखियां न तर हुईं

जितनी भी खूबियां थीं उधर उनके पास हैं
थीं शेष अपने पास जो कमियां इधर रहीं

किसी मुंह से ‘शान्त’ लौटते घनश्याम ब्रज की ओर
राधा की पीर ऐसी कि सखियां सिहर उठीं

देवकी नन्दन ‘शान्त’

देवकी नंदन 'शान्त'

अवकाश प्राप्त मुख्य अभियंता, बिजली बोर्ड, उत्तर प्रदेश. प्रकाशित कृतियाँ - तलाश (ग़ज़ल संग्रह), तलाश जारी है (ग़ज़ल संग्रह). निवासी- लखनऊ

2 thoughts on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    उत्तम ग़ज़ल !

  • विजय कुमार सिंघल

    उत्तम ग़ज़ल !

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