कविता : अमृता प्रितम और उसका अधुरा इमरोज
मेरे इमरोज़————
मै तुम्हारे लिये छोड़े जा रही,
एक तकिया तेरे नाम।
काश ये गिलाफ—–
मै तुमपे चढ़ा पाती,
और बिछा पाती अपनी युवावस्था में—-
एक बिस्तर तेरे नाम।
तुम मिले भी तो यु मुझसे,
कि जब जीवन की शाम——-
के चंद धुंधलके ही मेरे पास बचे थे!
माफ!करना क्या करु?
बहुत जलाना चाहती हूँ——–
तेरे अंदर रौशनी के लिये,
पर बुझ जाऊँगी———-
मै बनके दिया एक शाम।
मेरे इमरोज़———–
तुम मेरे और पास आओ,
टटोलो मुझको मैने बहुत कुछ लिखा है,
लेकिन————–
इस अमृता प्रितम का अधुरापन पढ़ो,
पढ़ पाये नही न!
जानती थी नही पढ़ पाओगे,
लो मेरी आखिरी साँस,
और आखिरी हिचकी,
खुद लिखे जा रही एक आखिरी किताब—-
अमृता प्रितम और उसका
अधुरा इमरोज़।
— रंगनाथ दूबे