कविता : किस्तों में जिंदगी
औरत की जिंदगी किस्तों के जैसी है
जहाँ पर जन्म लिया आँखे खोली
वही से शुरू हो जाती है पहली क़िस्त
की अदायगी
अठारह से लगभग बीस साल तक मायके
“माँ के आँगन” में जीवन की पहली क़िस्त
चुकाती है लड़की
फिर दूसरे क़िस्त की बारी आती जब बेटी
विदा होकर ससुराल है जाती
जहाँ खुशियाँ कम, गम ज्यादा बाहें फैलाये
स्वागत करती
पहली क़िस्त की सुखद अनुभूति मातृत्व
सुख, आनंदमय बचपन, अल्हड़ जवानी
पिता का निश्छल प्रेम, इन यादों के सहारे
दर्द से भरी इस दूसरी क़िस्त की अदायगी
लगभग आधे से ज्यादा हो जाती है
लेकिन इसको चुकाते- चुकाते पहली क़िस्त
की सुखद अनुभूति भी धूँधली पड़ जाती है
सबसे लम्बी क़िस्त यही तो होती है
बस इतना ही नहीं,
अभी तीसरी क़िस्त की अदायगी बाकी है
जो बेटे बहु के यहाँ चुकानी पड़ती है
जहाँ, आँखे नम और जुवान बंद होती है
लेकिन, इस क़िस्त में एक माँ होने की
संतुष्टी होती है, जिससे हर कष्ट वह
ख़ामोशी से सह लेती है
क्योंकि माँ ममतामयी होती है और
अपने बच्चों की ख़ुशी के लिए कुछ
भी कर सकती है
इसी सोच से चौथी क़िस्त,
जल्द ही अदा करती है और न जाने
कब अपनी आँखे बंद कर लेती है
अपने जीवन का चौथा और अंतिम क़िस्त
थक, हारकर भगवान के चरणों में
समर्पित करती है। और इस दुनिया
से विदा हो जाती है
औरतों की जिंदगी किस्तों के जैसी
होती है।
— बबली सिन्हा
सुंदर रचना बबली जी
समाज में औरत की जिंदगी की वास्तविकता से परिचय कराता बहुत ही सजीव चित्रण…..