धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

क्षमा याचना की संस्कृति

एक अंग्रेजी कहावत है- “गलती करना मानव का स्वभाव है, उसको क्षमा करना दैवीय गुण है।” क्षमा माँगने की प्रवृत्ति को हम प्रतिदिन ही देखते हैं। किसी व्यक्ति से जाने-अनजाने कोई गलती हो जाने पर यदि वह सज्जन हुआ तो ‘क्षमा करें’ या ‘सौरी’ कहकर खेद प्रकट करता है। लेकिन ऐसे खेद प्रकट करने का महत्व तभी है, जब वह सच्चे मन से किया गया हो, वरना उसका कोई अर्थ नहीं है।

हमारी हिन्दू संस्कृति में क्षमा को मानवीय गुणों में बहुत ऊँचा स्थान दिया गया है। हमारे शास्त्रों में धर्म के जो 10 लक्षण बताये गये हैं, उनमें ‘धृति’ अर्थात् धैर्य के बाद ‘क्षमा’ का ही स्थान है। ‘क्षमा वीरस्य भूषणं’ के अनुसार क्षमा करना वीरों का लक्षण है। इसका एक अर्थ यह भी है कि जो वीर नहीं है, उसे क्षमा शोभा नहीं देती, बल्कि उसे कायरता कहा जाता है। कविवर दिनकर जी ने लिखा भी है कि ‘क्षमा सोहती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो।’

क्षमा का प्रयोग करते समय हमें यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि केवल उसी स्थिति में क्षमा उचित है, जब गलती करने वाला व्यक्ति वास्तव में अपनी गलती का अनुभव कर रहा हो और पुनः उसे दोहराना न चाहता हो। यदि केवल दण्ड से बचने के लिए वह क्षमायाचना करता है, और फिर वही अपराध करता है, तो ऐसी स्थिति में क्षमा उचित नहीं है, बल्कि घोर अनुचित है। इतिहास में क्षमा के दुरुपयोग के अनेक उदाहरण मिलते हैं। सम्राट् पृथ्वीराज चौहान ने 17 बार हमलावर मुहम्मद गोरी को युद्ध में हराकर क्षमा किया था, लेकिन जब उसने एक बार पृथ्वीराज को हरा दिया, तो बिल्कुल क्षमा नहीं किया, बल्कि उनकी आँखें फोड़ डालीं और अपमानित करके मार डाला।

लेकिन यहाँ हम समाज में क्षमा की संस्कृति के बारे में बात कर रहे हैं। हिन्दुओं के चार प्रमुख त्यौहारों में से एक होली पर क्षमा की संस्कृति का दर्शन होता है। होली जलाने के अगले दिन ‘धुलेंडी’ या ‘धूल’ नामक पर्व मनाया जाता है, जिसका तात्पर्य ही है कि पुरानी अनुचित बातों और घटनाओं पर धूल डालकर हम नयी शुरुआत करें। इसलिए इस दिन लोग अपनी शत्रुता को भूल जाते हैं और गले मिलकर पुनः मित्रता का सम्बंध बना लेते हैं। जो ऐसा नहीं करते, वे इस त्यौहार का मर्म नहीं जानते।

जैन समाज में तो क्षमायाचना को एक अनिवार्य कर्तव्य का रूप दिया गया है। वे 10 दिवसीय पर्यूषण पर्व के अन्तिम दिन को ‘क्षमावाणी दिवस’ के रूप में मनाते हैं। इस दिन वे समस्त प्राणियों से जाने-अनजाने में किये गये पापों या गलतियों के लिए स्पष्ट शब्दों में क्षमायाचना करते हैं और स्वयं भी उनको क्षमा करते हैं। यह एक बहुत ही उच्च कोटि की भावना है। इसी प्रकार बौद्ध समाज में भी क्षमा को साधना का एक अनिवार्य अंग ही माना गया है, जिससे बुराइयाँ साधक से दूर रहती हैं।

यों क्षमा हर संस्कृति में किसी न किसी रूप में पायी जाती है, लेकिन उसका तात्पर्य अलग-अलग होता है। उदाहरण के लिए, ईसाई धर्म में जीसस द्वारा ‘पर्वत पर दिये गये उपदेश’ में दयालु और क्षमाशील होने की प्रेरणा दी गयी है। यह एक अच्छी शिक्षा है। लेकिन इसका व्यावहारिक रूप विकृत है। वे चर्च में जाकर पादरी के सामने अपने पापों की स्वीकृति करते हैं और यह आशा करते हैं कि जीसस उनके पापों को अपने ऊपर ले लेगा। इस पाप-स्वीकृति में कहीं भी यह भावना नहीं होती कि हम यह पाप आगे नहीं करेंगे। इसके विपरीत वे यह मानते हैं कि यदि हमने जीसस को अपना तारणहार स्वीकार कर लिया है, तो वह हमारे सभी पापों को अपने ऊपर ले लेगा और हमें उनका दण्ड नहीं भोगना पड़ेगा।

इस्लाम में भी खुदा को ‘अल ग़फूर’ अर्थात् ‘सब कुछ क्षमा करने वाला’ बताया गया है। इसका सीधा अर्थ यह है कि कुरानी अल्लाह मुसलमानों के सभी पापों को क्षमा कर देता है। लेकिन अल्लाह की क्षमा केवल उन लोगों के लिए है, जो इस्लाम पर और उसके अन्तिम संदेशवाहक मुहम्मद पर ईमान लाते हैं। जो ऐसा नहीं करते, वे कतई क्षमा करने योग्य नहीं हैं। खास तौर पर ‘मूर्ति पूजा’ करने वालों से तो कुरानी अल्लाह बहुत चिढ़ता है।

यहूदी धर्म में यह माना जाता है कि यदि कोई व्यक्ति कोई गलत कार्य करता है और अपनी गलती का अनुभव करके ईमानदारी से उसका प्रायश्चित करना चाहता है, तो जिसके प्रति वह गलती की गयी है, उसका यह धार्मिक कर्तव्य है कि गलती करने वाले को क्षमा कर दे।

यह सब ध्यान में रखते हुए हमें यह भी याद रखना चाहिए कि हमारे द्वारा जो भी सही या गलत कार्य किये जाते हैं, उनका वैसा ही परिणाम हमें भोगना अवश्य पड़ता है। कहा भी है- ‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्’। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस में लिखा है- ‘करम प्रधान विस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फल चाखा।।’ इसलिए हमें हमेशा शुभ कार्य ही करने चाहिए और अशुभ कार्यों से यथासम्भव दूर रहना चाहिए।

— विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
भाद्रपद शु. 6, सं. 2073 वि. (7 सितम्बर, 2016)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

3 thoughts on “क्षमा याचना की संस्कृति

  • लीला तिवानी

    प्रिय विजय भाई जी, विभिन्न कोणों से क्षमा का अति सुंदर विवेचन बहुत अच्छा लगा. एक सटीक व सार्थक रचना के लिए आभार.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , लेख बहुत पसंद आया . सच्चे दिल से क्षमा माँगना और आगे वाला भी उस को समझ कर मुआफ कर दे तो यह बहुत अच्छा कार्ज्य है . लेकिन बार बार क्षमा माँगना, इस बात की गवाही देता है किः मांगने वाले का मन साफ़ नहीं है . मुहम्द गौरी के उदाहरण से साफ़ ज़ाहिर है किः जो शख्स बार बार गलती करके मुआफी मांग लेता है, उस की नियत साफ़ नहीं है और उस को मुआफ कर देना कोई माने नहीं रखता . हर सोसाएटी में कुछ अछि बातें होती है और कुछ बुरी . यहाँ रह कर मैंने अक्सर देखा है किः गोरे लोग जब सौरी बोलते हैं तो वोह सही मानों में सौरी फील करते हैं और वोह अपनी गलती को सवीकार कर लेते हैं . अगर वोह अपने आप को सही मानते हैं तो कभी सौरी नहीं करेंगे बल्कि अपने आप को सही साबत करने की कोशिश करेंगे . लेख बहुत अच्छा लगा .

    • Man Mohan Kumar Arya

      मुझे लेख व कमैंट्स दोनों बहुत अच्छे लगे। सदर नमस्ते।

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