ग़ज़ल
एक बहरे-तवील में पेशकश:
कभी राहे-ख़म को मना लिया
कभी हब्से-दम को मना लिया
कभी इस कदम को मना लिया
कभी उस कदम को मना लिया
यूँ ग़ुज़र गयी मेरी ज़िन्दगी
लिये साथ मेरे नसीब को
कभी हमकदम को मना लिया
कभी अपने दम को मना लिया
हुआ यूँ भी तेरे फ़िराक में
जला दिल अगर तेरी याद में
कभी हमने ग़म को मना लिया
कभी ग़म ने हमको मना लिया
तेरी जुस्तजू के दयार में
मेरी काविशों का वो हाल है
कभी इक सितम को मना लिया
कभी इक करम को मना लिया
कहीं रंजिशें, कहीं साज़िशें,
कहीं शोखियाँ मेरी शान में
कभी चश्मे-ख़म को मना लिया
कभी अपने रम को मना लिया
कभी आइनों ने दिखा दिया
कभी वक्त ने भी बता दिया
कभी इस भरम को मना लिया
कभी उस वहम को मना लिया
मेरे ज़ख्म खुल के न रो सके
रहा ‘होश’ मुझको वक़ार का
कभी उस अलम को मना लिया
कभी चश्मे-नम को मना लिया।
बहुत खूब !
बहुत खूब !