नवगीत : सरहदें ही नहीं सुलग रहीं
सरहदें ही नहीं सुलग रहीं
लगी है आग अंदर भी।
बेक़सूर को आतताइयों ने
जख़्म दिये हैं गहरे
हौसले बढ़े हुए हैं क्यों नहीं
लगते इन पे पहरे
किस गुल किस कली की बात करें
दहशत में गुलज़ार हैं
घर-घर, गली-गली सब को
मायूसी है रहती है घेरे
सरहदे ही नहीं झुलस रहीं
जले हैं बाग़ अंदर भी।
अपना, पराया, मासूम
नहीं देखता सैलाब कभी
खुशकिस्मत पर भी तासीर
नहीं खोता तेज़ाब कभी
छोड़ जाती है तबाही सदा
अपने क़दमों के निशाँ
छिपा नहीं पाया उसे चिलमन
ना कोई हिजाब कभी
सरहदें ही नहीं दर्दअफ़्ज़ा
बढ़े हैं दर्द अंदर भी।
सरहदें सदा बारूद के ही
बीज हैं बोती आईं
बारिश सदा गगन से यहाँ
आतिशी ही होती आईं
बिना चलाये हल यहाँ
उगते हैं शोले गुले-अनार
फस्लें सदा ही खून-खराबे की
यहाँ होती आईं
सरहदें ही नहीं दहल रहीं
हिला है वतन अंदर भी।
— आकुल, कोटा
बहुत शानदार गीत !
बहुत शानदार गीत !