सामाजिक

सवाल हिंदी सहित ‘भारतीय-भाषाओं’ का है

संविधान  परिषद  की १२  सितम्बर  १९४९ को अपराह्न में भाषा के  प्रश्न पर  विचार   किया  गया। अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने स्मरणीय शब्दों में कहा,-“हम यह नहीं भूले कि भाषा के प्रश्न पर कुछ भी निर्णय ले  लिया जाए, समूचे  देश को उसे मानना  पड़ेगा। सारे संविधान  में शायद ऐसा दूसरा कोई प्रावधान  न होगा कि जिसे  प्रति दिन, प्रति प्रहर, प्रति पल हमें  व्यवहार में क्रियान्वित करना होगा।  इसलिए आपको कहूँगा कि केवल बहसबाज़ी ले जाने से बात नहीं बनेगी।”

संविधान के भाग १७ (राजभाषा) अध्याय-१ में अनुच्छेद ३४३ के अनुसार “संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि  देवनागरी होगी।” इसी अनुच्छेद के खण्ड (२) में कहा गया है कि संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की कालावधि तक  संघ के राजकीय  प्रयोजनों के लिए यथापूर्व अँग्रेजी भाषा प्रयोग की जाती रहेगी। खण्ड (३) के अंतर्गत संसद को अधिकार दिया गया कि पंद्रह साल की अवधि के बाद  भी विधि द्वारा अँग्रेजी भाषा का प्रयोग ऐसे प्रयोजनों के लिए उपबंधित कर सके कि जो उस विधि में उल्लिखित हो।

अब  स्पष्ट  हैं  कि अँग्रेजी  देश की  दूसरी सह भाषा ही  नहीं, संघ की  राजभाषा  बना दी  गई है और हिंदी  संवैधानिक  मान्यता प्राप्त  मात्र भाषा व्यवहार में है। देश में  एक नहीं दो  राजभाषाएँ हैं। अंग्रेजी वास्तव में  दूसरी सह भाषा हो  कर भी सत्ता के सभी केंद्रों  पर राज  कर  रही है। दूसरी ओर हिंदी प्रथम संवैधानिक राजभाषा के पद पर होते हुए भी मात्र काग़ज़ पर है। अँग्रेजी के अनुवाद की भाषा है। दुनिया में ऐसी सोचनीय  स्थिति  किसी भाषा की  नहीं होगी। देश की  भाषा अपने पद से अधिकार  से  वंचित  है। विदेशी भाषा  का  प्रभुत्व  देश की  सत्ता पर, राजकाज  पर, शिक्षा, न्याय, मीडिया, व्यापार, उद्योग, उच्च वर्ग जो मुश्किल से चार प्रतिशत है, व्यवहार में है।

दिसम्बर १९६७ में भारतीय संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित इस संकल्प को जानना प्रासंगिक होगा :-  “जब कि संविधान के अनुच्छेद ३४३ के अनुसार संघ की राजभाषा हिंदी रहेगी। और उसके अनुच्छेद ३५१ के अनुसार  हिंदी  भाषा की प्रसार वृद्धि करना  और उसका  विकास करना ताकि वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सब तत्वों की  अभिव्यक्ति का माध्यम हो सके, संघ  का कर्त्तव्य है, यह सभा संकल्प करती है कि हिंदी के प्रसार एवं विकास की गति बढ़ाने के हेतु तथा संघ के विभिन्न राजकीय प्रयोजनों  के लिए उत्तरोत्तर  इसके प्रयोग के हेतु भारत  सरकार द्वारा  एक अधिक  गहन एवं व्यापक कार्यक्रम तैयार किया जायगा और उसे कार्यान्वित किया जाएगा।” इस प्रस्ताव की जानकारी देश को कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, न्यायपालिका  और देश के जन-जन तक  पहुँचाने से बहुत से भ्रम और और विसंगतियाँ दूर होने में सहायता मिलेगी।

दूसरी महत्त्व की  जानकारी यह है:-कांग्रेस दल  की कार्यसमिति  का २ जून १९६५ का  भाषा प्रस्ताव हमारे राष्ट्रीय जीवन का बहुत ही ख़तरनाक मोड़ सिद्ध हुआ है। यह राष्ट्रीय राजनैतिक विचारशक्ति के पक्षाघात की परिणति रहा है। इसके कारण हिंदी का निरंतर वध होता गया है। कांग्रेस कार्यसमिति के प्रस्ताव से हिंदी बनाम क्षेत्रीय भाषाओं के बीच विवाद पैदा हो गया। इस प्रस्ताव के अनुसार अँग्रेजी का प्रयोग तब तक चलता रहेगा कि जब तक  समग्र अहिन्दी राज्य और संसद की दोनों सभाएं अँग्रेजी का प्रयोग बंद करने के लिए प्रस्ताव पारित न कर दें। यदि एक भी अहिन्दी राज्य अँग्रेजी चलाना चाहेगा, तो अँग्रेजी का प्रयोग बंद नहीं किया जा सकेगा। यह प्रस्ताव अँग्रेजी को स्थायी तौर पर भारतीय राष्ट्र की मुख्य भाषा के रूप में स्वीकार करने के लिए एक शुरुआत थी।

२ फरवरी १८६५ के दिन लॉर्ड मैकाले ने ब्रिटिश संसद में दिए गए अपने भाषण में जो कहा था, वह बताता है कि स्वाधीनता के सत्तर वर्ष हो जाने पर भी अपनी भाषाओं और शिक्षा जैसे बुनियादी क्षेत्र में हमारी मानसिकता अब भी अँग्रेजी और अँग्रेजियत से मुक्त से मुक्त नहीं है। राष्ट्र स्वाधीन है, परंतु राष्ट्र की अपनी राष्ट्र भाषा तक नहीं है। शिक्षा, न्याय, प्रशासन और जीवन के हर क्षेत्र में अँग्रेजी भाषा का प्रभुत्व निरंतर बढ़ता ही जा रहा है।

मैकाले ने यह कहा था:- मैंने पूरे भारत कोने-कोने में भ्रमण कर ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं देखा जो या तो भिखारी हो या चोर हो। इस देश में मैंने ऐसी समृद्धता, शिष्टता और लोगों में इतनी  अधिक क्षमता देखी है कि मैं यह सोच भी नहीं सकता कि हम इस देश पर तब तक राज कर  पायेंगे, जब तक कि हम इस देश की रीड़ की हड्डी को ही न तोड़ दें, जो कि इस देश के अध्यात्म और संस्कृति निहित है। अत: मेरा यह प्रस्ताव है कि हम उनकी पुरानी तथा प्राचीन शिक्षा प्रंणाली को बदल  दें। यदि ये  भारतीय सोचने  लगे कि  विदेशी और अँग्रेजी  ही श्रेष्ठ है  और हमारी संस्कृति से  उच्चतर है तो वे अपना आत्म सम्मान, अपनी  पहचान तथा अपनी  संस्कृति को ही खो देंगे और तब वे वह बन जावेंगे जो हम उन्हें वास्तविकता में बनाना चाहते हैं। सही अर्थ में एक ग़ुलाम देश।”।

अब हमें यह सत्य स्वीकार करना है कि हमने अँग्रेजी को ही माध्यम माना लेकिन समझा नहीं कि माध्यम ही संदेश होता है। अँग्रेजी से चिपके रहे और अब अँग्रेजी भाषी देशों के अंध भक्त हैं। फ्राँस और जर्मनी पश्चिमी होते हुए भी अँग्रेजी से विज्ञान नहीं सीखते। पूर्व का जापान, जापानी में ही विज्ञान की पढ़ाई करता है। रूस भी विज्ञान की पढ़ाई अपनी भाषा रसियन के के माध्यम से करता है। परंतु हमारी धारणा है कि विज्ञान और तकनीक को अँग्रेजी में ही सीखा और विकसित किया जा सकता है, भारत की किसी भी भाषा में नहीं सीखा जा सकता है। हमें समझने ही नहीं दिया गया कि भाषा सिर्फ माध्यम नहीं है, वह हमारी जीवन पद्धति भी है और उसे अभिव्यक्त करने का साधन भी है। वह हमारी संस्कृति और सभ्यता का सार है। उसे त्याग कर हम कोई भी मौलिक काम कभी भी नहीं कर सकते हैं। अन्य भाषाऐं सीख कर उनमें कुशल कारीगर तो हो सकते हैं किंतु उनसे मौलिक सृजन नहीं कर सकते हैं। मौलिकता और सृजन का सीधा संबंध हमारी जीवन पद्धति को अपने वास्तविक रूप में पूरी तरह से खुल कर अभिव्यक्त करने से है। यह अभिव्यक्ति सिर्फ अपनी भाषा में ही कर सकते हैं।

उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में रूस और जापान विज्ञान में ब्रिटेन और अमेरिका से आगे नहीं थे। आज उपभोक्ता वस्तुओं और तकनीक में जापान इन सबसे आगे है। सामरिक विज्ञान और अंतरिक्ष की खोज में रूस किसी से कम नहीं है। दोनों देशों में विज्ञान और तकनीक में अपनी जीवन पद्धतियों को नहीं बदला। इन देशों ने सार्वभौम विज्ञान को अपनी भाषाओं में सीखा और तकनीक को अपने देश की भाषाओं की आवश्यकताओं के अनुसार विकसित किया। लेकिन हमने अपनी मान्यता बना रखी है कि विज्ञान और आधुनिकता अँग्रेजी भाषा से सीखी और लायी जा सकती है।

अंग्रेजी भाषा में साहित्य रचने वाले भारतीयों के लेखन में मौलिकता का अभाव होता है। इस कारण वे अँग्रेजी साहित्य में सही जगह नहीं पा रहे हैं। यही हालत अँग्रेजी से डॉक्टर, इंजीनियर या तकनीक सीखने वालों की है। अँग्रेजी हमें किसी क्षेत्र में आगे नही बढ़ने देगी। हम उसके अंध बन कर ही रह सकते हैं। असली सवाल हिंदी या भारतीय भाषाओं का है ही नहीं, अपितु ‘भारत’ का अपने साक्षात्कार के माध्यम से ‘भारत’ होने का है। ‘इण्डिया’  से मुक्त होना होगा। जब तक हम अँग्रेजी से अपनी समस्याओं के ताले खोलने की कोशिश करेंगे, तब तक हम विषमता, भेदभाव, ग़रीबी, बेरोज़गारी और हर व्यक्ति को सच्ची स्वाधीनता दे नहीं सकेंगे और न ही सच्चे लोकतंत्र की स्थापना कर सकेंगे। भारत को बांग्ला, मराठी, कन्नड़, पंजाबी, मलयालम, उड़िया, असमिया, तमिल, हिंदी, तेलुगु और गुजराती आदि भाषाओं से ही समझा जा सकता है और उसकी समस्याओं को सुलझाया जा सकता है।

सिर्फ हिंदी भाषा पर जोर देने से हमारी हालत वही रहेगी जो अँग्रेजी ने कर रखी है। ‘भारत’ के भविष्य का निर्माण हिंदी सहित भारतीय भाषाओं को अपना कर ही किया जा सकता है। हमें पता लगाना होगा कि भारत की भाषाओं में कहाँ-कहाँ पर कितने युवाओं ने इंजीनियर, वैज्ञानिक, तकनीक के लिए संघर्ष किया है। अँग्रेजी भाषा से मुक्ति  के लिए अपनी भाषाओं को अंगीकार किया है। इनका यशोगान हिंदी वालों को अवश्य करना चाहिए। हमारा लक्ष्य अँग्रेजी भाषा की अनिवार्यता के ख़िलाफ़ भारतीय भाषाओं को सम्मान देने का होना चाहिए। ‘इण्डिया’ को उसकी संस्कृति को हटा कर ‘भारत’ को लौटाने का होना चाहिए। यह उद्घोषणा संत शिरोमणि विद्यासागर आचार्य की है।

हमें समझना होगा कि भारत की नियति और साक्षात्कार भारत और उसकी भाषाओं से ही समझी और देखी जा सकती है। भारत की प्रतिभाएँ अविष्कार, अनुसंधान और मौलिकता के क्षेत्र में चमत्कार कर सकती है। नोबल पुरस्कार की क़तार हमारी भाषाओं के दम पर लग सकती है। दुनिया के विश्वविद्यालयों में हमारी भाषाओं के आधार पर गुणवत्ता की शिक्षा से हम अग्रणी पंक्ति में पहुंच सकते हैं। लॉर्ड मैकाले ने भारत भ्रमण कर के जो ब्रिटिश संसद में सोने की चिड़ियाँ कहा था, वह पहचान वापस आ सकती है। हिंदी दिवस’ को अब सिर्फ हिंदी भाषा का सरकारी दिवस न मनाते हुए अब “भारतीय भाषा दिवस” मनाना सार्थक होगा। हिंदी भाषा का विरोध नहीं होगा। हिंदी भाषा की नियति भारतीय भाषाओं के नत्थी हो जायगी। हमारी भाषाऐं हमारी प्राचीनता और विरासत हैं। अब तक संस्कृत, पाली, मागधी,प्राकृत भाषाओं की उपेक्षा हुई है। जो हमारे ज्ञान-विज्ञान का भण्डार रही हैं।

अब तक भारतीय प्रतिभाओं की प्रतिभा का लाभ विदेशियों को मिलता आया है, जो भारतीय पूजी है। जो भारतीय ज्ञान-विज्ञान की प्राचीन पद्धतियों की संतान है। भारत धरा से उपजी है। यहाँ का हवा-पानी, अन्न से पोषित हुई है। अब हमें परिवर्तन लाना होगा। मेडिकल इंस्टिट्यूट, आई आई टी और आधारभूत शोध के हमारे संस्थान पश्चिम के संस्थानों की नक़ल पर बने है। जिनका असल पश्चिम में है और वहाँ उन्हें सुधारने और आगे बढ़ाने की लगातार कोशिशें होती रहती हैं। हमारे भारतीय संस्थान उनसे हमेशा पीछे रहते आए हैं और इनसे जुड़े अपने असल की ओर देखते हुए आगे काम के लिए वहां जाते रहते हैं। क्योंकि असल का केंद्र वहाँ पर स्थित है। अपनी भाषाओं को अपनाने से पश्चिम के असल का विकल्प अपने देश में तैयार हो जायगा। हमारा अपना असल  केंद्र हो जाने  पर पश्चिम के समक्ष सीना तान कर बराबरी से खड़े हो सकेंगे।

निर्मलकुमार पाटोदी

४५, शांति निकेतन (बंबई अस्पताल  के पीछे),

इंदौर ४५२-०१० म. प्र.

मो. ७८६९९-१७०७० मेल: [email protected]

2 thoughts on “सवाल हिंदी सहित ‘भारतीय-भाषाओं’ का है

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख. जब तक अंग्रेजी को पूरी तरह नहीं हटाया जायेगा, तब तक भारतीय भाषाओं सहित हिंदी को उसका उचित स्थान नहीं मिल पायेगा. अंग्रेजी हटाने के लिए शासन में सुदृढ़ इच्छाशक्ति होनी चाहिए, जो नहीं है.

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख. जब तक अंग्रेजी को पूरी तरह नहीं हटाया जायेगा, तब तक भारतीय भाषाओं सहित हिंदी को उसका उचित स्थान नहीं मिल पायेगा. अंग्रेजी हटाने के लिए शासन में सुदृढ़ इच्छाशक्ति होनी चाहिए, जो नहीं है.

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