कविता – नारी की बेड़ियाँ
मुट्ठी भर सबल नारियों से,
नारी नहीं हो सकती सबला।
देखो जाकर हर गली मोहल्ले,
नारी की क्या हो रही दुर्दशा ।
है यह पुरूष प्रधान समाज,
नारी को क्या महत्त्व देगा ।
पैरों तले रौंद कर अपने,
जख्मों से भरा उपहार देगा ।
वस्त्र हटा के अंग देख लो,
किसी तुम दुखिया नारी का।
रक्त वर्ण से चित्रित होगा,
इतिहास उस दुखियारी का।
जीवन में दुख कितने झेलती,
तुम उसको क्या समझोगे ?
तुमने तो सिर्फ कष्ट दिया है,
कब तुम उसको बक्शोगे।
चाहते जानना उसकी पीड़ा,
तो लेना होगा नारी जन्म ।
कैसे बंधी वह कर्तव्यों से,
कैसे कटता उसका हर दिन।
सब कहते नारी सबला है,
कहाँ है यह नारी का रूप ?
रात कटती पीड़ा में उसकी
दिन में सहती सड़क की धूप।
नारी का अपना वजूद कहाँ ?
जीवन में उसके विश्राम कहाँ ?
उम्र भर रहती निर्भर,
पिता, पति, पुत्र के ऊपर ।
होता कहाँ नारी का घर ?
बीता बचपन पिता के घर ।
जवानी बीती पति के घर, बुढ़ापा कटे पुत्र के घर ।
कब कटेगीं उसकी बेड़ियाँ ?
कब होगी सच में आजाद ?
मना लो लाख तुम दिवस नारी, पर है नारी अब भी बेचारी ।
— निशा गुप्ता, तिनसुकिया, असम