लघुकथा : परिवर्तन
‘सुनो आज मैंने घर के बगल में वन बी एच के वाले दो फ्लैट्स देखे हैं एक मे हम लोग रहेंगे और एक में तुम्हारी माँ, मुझे उनकी सूरत कभी नही देखनी जब देखो तब हर वक़्त सामना हो ही जाता है ।’
‘पर नेहा तुम समझती क्यों नहीं अब तो पापा भी नही हैं माँ अकेली कैसे रहेंगी और मैं अपनी माँ के बिना नही रह सकता ,समझीं तुम।
अरे नेहा तुम्हारा दिमाग तो ठीक है तुम और माँ हम सब एक साथ रहना चाहते हैं जब से टिन्नी घर में आया है तुम्हारा व्यवहार एकदम से बदल गया है ।’
‘अब तुम मानो या न मानो अभी के अभी ही मेरे साथ फ्लैट्स देखने चलो माँ से यही बताना कि हम सब्जी खरीदने जा रहे हैं।’
‘ले लो फ्लैट्स पर मैं रहूँगा अपनी माँ के साथ ही, चाहे सूरज पक्षिम से निकल आए और छाँव धूप का साथ छोड़ दे पर मै अपनी माँ के साथ हूँ और रहूँगा ।’ (अभी मकान ले लूँ तब तो तुमको भी आना ही होगा माँ का साथ छोड़ कर ,मेरी माँ ने यही समझाया है मैं अपनी माँ का कहना ज़रूर मानूँगी हुंह)
‘तुम्हारी माँ ने चाहे तुम्हारे लिए कितने भी कष्ट उठाये हों पर अब उनको अलग रहना ही होगा रही गहने और सामान की बात तो आज नही तो कल उनकी मृत्यु के बाद तो हमको ही मिलने हैं और गांव वाली हवेली और खेती वाली सब ज़मीन कोई अपने साथ तो ले नही जाएंगी अरे अब चलो भी किराये की बात कर आते हैं और 15 के पहले ही फ्लैट्स में शिफ्ट हो जाएंगे अपना खाना अपने आप बनायें और खाएं, जियें या मरें मेरी बला से.’
मन ही मन सोच और फैसला कर नेहा पति के साथ घर से निकलती है और माँ अकेली बैठी यही सोच रही है कि क्या यही सब झेलने के लिए उसने बच्चों को काबिल बनाया था ।
— शुभदा वाजपेई