लघुकथा – सब तन कपड़ा
‘एक तो घर में जगह नहीं ऊपर से नये कपड़े चाहिए, परन्तु पुराने किसी को देने को कहो तो मुहं बनता है |’ भुनभुनाते हुए थैले सहेजती | बच्चे सुनकर अनसुना कर देते | पुराने थैले को खोल देखती फिर छाँट कर एक-दो कपड़े निकाल बच्चों को पहनने को कहती रमा| लेकिन अलमारी के कोने में हफ्तों से अनछुआ पड़ा देख उन्हें फिर थैले में भरकर रख देती| थैलों को देखकर जरूरतमंद पाकर खुश हो जायेंगे, मन ही मन सोचकर खुश हो जाती | रोज-रोज किच-किच होती रमा के घर में कपड़ो को लेकर|
आज दीपावली पर बच्चों को कपड़े की जिद पकड़े देख रमा भड़क उठी -” नए कपड़े खरीदो, एक दो बार पहन ही रख देते हो| पैसे जैसे पेड़ पर उगते हैं |”
“ऐसा हैं मम्मी, ये पुराने कपड़े हम नहीं देने जायेंगे, वो भी स्कूटर से | पापा को कहो कार लेकर दें | ”
“अच्छा ! अब पुरानी चीजें किसी को देने चलना हो तो कार चाहिए, स्कूटर से शर्म आती है क्या तुम्हें ?”
“आप घर में बैठी रहतीं | निकलिए बाहर तनिक | कार होंगी तो उसी में रखे रहेंगे | दूरदराज जहाँ जरूरत मंद दिखे कोई, दे दो उन्हें |”
“ठीक है चल मैं खुद चलती हूँ आज | देखती हूँ कैसे नहीं मिलते जरूरतमंद!!!! निकाल स्कूटर मैं आ रहीं हूँ ।”
मुश्किल से दो थैले पकड़, किसी तरह सड़क किनारे झुग्गी बस्ती में पहुँची रमा | पर ये क्या !! थैला लेकर दो, फिर चार,फिर आठ झोंपड़ियों के चक्कर लगा ली वह| कीचड़, कूड़े के ढेर से से बचती बचाती घंटो बाद, भरा थैला टाँगे दूर खड़े बेटे के पास पहुँच गयी |
” क्या हुआ मम्मी ? नहीं मिला कोई जरुरतमन्द ?”
“सब तन कपड़ा चाह रही थी मैं, कपड़े भले चीथड़े हो, पर एक दो के घर के सामने यहाँ तो कार खड़ी थी , भले बहुत पुरानी ही सही | छत भले झुग्गी थी, पर टाटा स्काई की छतरी मुझे मुहं चिढ़ा रही थी | ”
“और आप है कि ‘महंगा है’ कह टाटा स्काई हटवा दीं। ”
अनसुनी कर रमा फिर बोली, “हट्टे-कट्टे लड़के बड़े-बड़े मोबाईल में वहां तो मगन थे | सोचा आगे जाऊं शायद कोई जरूरतमंद मिले | पर ना , उनसे ज्यादा जरूरतमंद तो मैं हूँ बेटा, जो बड़े बेटे के कपड़े छोटे को और छोटे के बेटी को पहना रही हूँ।
— सविता मिश्रा