काँच के खिलौने
हम काँच के खिलौने नहीं हैं,
जो गिरते ही टूट जायेंगें ,
जोर से चट्खेगें
और टुकड़े टुकड़े बिखर जायेंगें,
और फिर कभी जुड़ न पायेंगें …नहीं,
हम तो दोस्त हैं मेरे यार, दोस्त..
पहले एक दूसरे की नज़रों से गिरेंगें,
पर दिल ही दिल कडवाहट
अपना रंग दिखाएगी,
और हमारी दोस्ती टूट जाएगी,
पर हम काँच के खिलौने नहीं हैं….
यह ख़ामोशी का आलम यूं ही
चलता रहेगा, चलता रहेगा—
फिर एक दिन तुम्हें एक समाचार मिलेगा ,
तेरा यह दोस्त कई दिनों से है बहुत बीमार है
बिस्तर पर पड़ा है, बहुत ही लाचार है,
तब तुम्हें मेरे कुछ अहसान याद आयेंगें..
और यही पल तुम्हें मेरे पास खींच लायेंगे…
तेरे हाथों में मेरा हाथ होगा
और भीगी पलकों से बात होगी,
समय के साथ साथ सब घाव भर जाते हैं,
और बिछड़े यार फिर से जुड़ जाते हैं,
क्योंकि —
हम काँच के खिलौने नहीं हैं,
जो गिरते ही टूट जायेंगें ,
और फिर कभी जुड़ न पायेंगें….
— जय प्रकाश भाटिया