कविता

कविता : सुलगती सिगरेट

लगाये बैठा है…
होंठो पे अपनी वे सुलगती सिगरेट!
बगल में अनगिनत टुकड़े गिरे है,
धुआँ है!
उस कमरे में जिस कमरे में कभी तुम,
छिन के फेक दिया करती थी,
उसकी अधजली सिगरेट।
अब होंठ पे लगा भुल जाता है,
वे तो सुलगते-सुलगते,
जब होंठ के आखिरी सिरे पे पहुँचती है,
तो वे चौकता है!
फिर जला होंठो पे रख लेता है,
वे अपने एक नई सिगरेट।
और तकने लगता है दरवाजे की तरफ,
कि शायद तुम लौट के आओ,
छिन के फेकने इसके होंठो से,
अधजली सिगरेट।
एक सुबह———-
दरवाज़ा खुला था लोगो की भिड़ थी,
शायद कुछ देर पहले ही मरा है,
क्योंकि—————-
अभी भी उसकी होंठो पे एै,रंग
धीरे-धीरे आगे बढ़ रही बुझने के लिये,
बिल्कुल इसके जीवन की तरह——-
ये सुलगती सिगरेट।

रंगनाथ द्विवेदी

रंगनाथ दुबे

जन्मदिन-10-7-1982 शिक्षा----एम.ए.,डि.एच.एल.एस. संम्प्रति----इटीनरेंट टीचर समेकित शिक्षा। प्रकाशन----अमर उजाला,अपने यहाँ के विथिका कालम से दैनिक जागरण में रचनाये व व्यंग्य लेख का प्रकाशन,सच का हौसला,तरुणमित्र,देश की उपासना,व करुणावती साहित्य धारा के अलावे अन्य पत्र-पत्रिकाओ से रचनाओ का प्रकाशन। mo.no.----7800824758 ईमेल एड्रेस[email protected]