ग़ज़ल
वो सब्ज़बाग़ दिखा कर के बाग़ लूट गया,
ये रौशनी के बहाने चिराग़ लूट गया।
किसी के जिस्म को लूटा दरिंदगी ने यहाँ,
किसी के रूप को वहशत का दाग़ लूट गया।
कई तरीकों से ज़ारी है लूटपाट यहाँ,
कोई ज़मीर तो कोई दिमाग़ लूट गया।
मिली निगाह जो साक़ी से, तौबा टूट गयी,
कोई शराब तो कोई अयाग़ लूट गया।
निबह का ज़र्फ गया, लज़्ज़ते-खलिश भी गयी,
हमें तो तेरे सितम का फराग़ लूट गया।
समेट पाये न अब तक भी अपने ‘होश’ को हम,
वो दे के अपनी वफ़ा का सुराग़, लूट गया।
अयाग़ – प्याला ; फ़राग़ – अनुपस्थिति
सुराग़ – चिन्ह, पहचान