ग़ज़ल : कभी दरिया कभी कश्ती
कभी दरिया कभी कश्ती कभी पतवार का मसला
अजब ही हाल है ऐ जिन्दगी संसार का मसला
ग़ज़ल के वास्ते फूलों की बारिश पंक्ति पंक्ति में
मगर फिर भी खडा़ हो जाता है श्रृंगार का मसला
मैं करती आ रही हूँ रिश्ते नातों पर ही कुर्बानी
सवाली बनके आही जाता है कुछ प्यार का मसला
लुटा कर बैठी हूँ अपनी खुशी अपनों के हिस्से पर
उठाया जाता है फिर भी वही दिलदार का मसला
मेरी गर्दन के उतरन का रखे इलजा़म किसके सर
अरे ये पूछना है पूछो है तलवार का मसला
हजा़रों बाम पे ‘शुभदा’ हैं रौशन दीप से चेहरे
कहाँ वो पर जलायेगा ये है परदार का मसला
— शुभदा वाजपेई