मुहब्बत से ही हर तरफ़ रोशनी है
मुहब्बत से ही हर तरफ़ रोशनी है
ग़ज़ा-ओ-ख़ुशूमत फ़क़त ज़ाहिली है
जो चालाक ठहरे वो बचकर निकलते
तक़ाज़ों पे हरदम रही सादगी है
नहीं दिख रहा है सलामत कोई भी
ज़माने में कैसी हवा चल रही है
सियासत जो कौओ को मिलने लगेगी
तो सर फूटना की खता लाज़मी है
उजालों के राही सदा याद रक्खो
निकलती अँधेरों से ही रोशनी है
नहीं जिसके हाथों में पतवार होती
उसी की सफ़ीना सदा डूबती है
लगाओ ज़रा तेज़ आवाज़ ‘माही’
हुकूमत कहाँ थोड़े से जागती है
(ग़ज़ा – मज़हबी युद्ध, ख़ुशूमत – दुश्मनी, ज़ाहिली – मूर्खता)
— महेश कुमार कुलदीप ‘माही’, जयपुर, राजस्थान