ग़ज़ल : रह गया
कोई झूठ में यहां, कोई बहाने में रह गया,
मैं तन्हा सच बोलकर ज़माने में रह गया!
राहें मुहब्बत में मिल गऐ, मीत उसे नये,
मैं बचपन का यार था, पुराने में रह गया!
ये बस्तियां ये उजाले सब छोडकर चल दिये,
आबाद मेरा मकान अब, वीराने में रह गया!
औरों की छीनकर तकद़ीर, उन्हे कुछ ग़म नहीं,
मैं तो बस नसीब अपना, आजमाने में रह गया!
वो बस एक ख्याल था, आया गुज़र गया,
वापस में उस ख्याल को लाने में रह गया!
अक्सर ये कहकर चमन को दी हैं तसल्लियां,
के क्या वक्त अब बहार के आने में रह गया!
हाल अजब हुआ है “जय” किस्साऐ इश्क का,
आधी हकीकत रही, आधा फ़साने में रह गया!
— जयकृष्ण चांडक “जय”, हरदा म. प्र.