माँ
(कविता की पृष्ठभूमि – कवि की माँ का स्वर्गवास हो गया होता है और वो अपनी माँ के कमरे का दरवाज़ा खोल कर संदूक को निहारते हुए कहता है)
आँसू फूट कर आये थे जो एक खिलौना टूटा था
वक्त था जब मैं अपनी माँ से भी रूठा था
दुपट्टे से माँ ने नन्हे आँसू पोंछते हूए
मिट्टी का गुड्डा दिया था
पल बचपन का अनोखा
उसके आँचल में जिया था
आज उस लोहे और काढ से गढी संदूक को जब खोला
आँसू आ ठहरे पलकों पर
निशब्द मन कुछ ना बोला
आँखों के सामने बस माँ शब्द ही छाया
जब ख्वाब तस्वीरों के साथ आया
मेरे पहले दो कदम धरा पे देख मुस्कुराना माँ का
सुबह-सुबह पैरों पर बिठा नहलाना माँ का
गोद में बैठाकर उसने इशारों
में दुनिया समझाई है
खोले किवाड़ जो तेरे कमरे के
देख फटी साड़ी, चप्पल टूटी
माँ तेरी बहुत याद आई है
उठा नींद से जब भी
तुने नहला-धुला
कान्हा -सा सजाया था
एक पैर में घुँघरू बांध माँ
ने हथेली पीट नचाया था
पैदा हुआ जब मैं
तूँ हसीं में रोया था
तूँ फिर से उठायेगी कह
“उठ जा मेरे लाल “इसलिए
रहता हूँ मैं सोया-सा
बड़े याद आये वो दो निवाले
तेरे हाथ की रोटी
तूँ होती तो ना ये पलकें
और आँखें आज रोती
प्रखर, अमर जलती रहे
तेरी आत्मा की ज्योति
होता हर बेटा राजा
गर भाग्य की कलम माँ के हाथों में होती
सारा ब्रह्मांड, सारी दुनिया जानती है
एक माँ ही बच्चे में भगवान् को मानती है
माँ की ममता को जान पाओ
इससे बड़ा ज्ञान नहीं
लुढकते आँसू पलकों से,
बैठा शीश झुकाये संदूक के पास
मान गया
माँ से बड़ा कोई भगवान् नहीं
देखकर संदूक में संजोकर रखे हुए
मेरे छोटे-छोटे कपड़े, ताबीज को
अब फटी जा रही है मेरी छाती
एक ख्वाहिश है!!!
ये आँसू पोंछने दुपट्टे से बस मेरी माँ आ जाती
कवि -परवीन माटी