लघुकथा

लघुकथा : ठंडा लहू

हिंदी साहित्य डेढ़ सौ रूपये किलो का बैनर देख एक व्यक्ति दुकानदार से बोला “परशुराम जी की किताब मिलेगी क्या ?”
दुकानदार की आँखों में चमक आ गयी | हाँ साहब क्यों नही मिलेगी | उनकी किताब तो कई है मेरे पास| आपको कौन सी चाहिए ?”
‘दूर के परिंदे’ लघुकथा संग्रह ! और भी जो उनकी कथा संग्रह तीन-चार किलो भी हों जाए तो भी दे दो सब |”
“लगता है आप पढ़ने के शौकीन है लघुकथाओं तथा कहानियों के |”
“नहीं ऐसा कुछ नहीं है| मैंने सुना है वो शायद चल बसे | दसियों साल से किसी साहित्यिक कार्यक्रम या गोष्ठी में नहीं दिखे वह | आज की नई जनरेशन उनको भूल गयी हैं |”
“तो आप उनको पढ़-जानकर उन्हें खोजना चाहते है !” ख़ुशी चेहरे पर छुपाए न छुप रही थी | उनकी कथाओं का प्रचार कर उन्हें प्रसिद्धि दिलाना चाहते हो!” अनगिनत ख्बाब आँखों में जैसे पलने को आतुर हो उठे |
“तुम्हें क्या करना इससे? और हाँ ध्यान रहें ऐसे प्रकाशक की तौलना जो हलके पेज वाली पुस्तक छापता हो | भले किसी और कथाकार की एक दो रखनी पड़े तराजू पर |”
थोड़ा मायूस हुआ दूकानदार कि सस्ते में भी और सस्ता माल चाहिए इन्हें | लगता हैं सच में मुझे कोई नहीं पढ़ना चाहता है|
“पर साहब आपको चाहिए क्यों ?” पैसा हाथ में लेता हुआ दूकानदार फिर चिहुँक कर पूछ बैठा | कान शायद सुनना चाहते थे कि कोई तो है जो परशुराम यानि मुझे पढ़ना चाहता है |
“बस उनकी कथाओं के कथ्य में हल्का फेरबदल कर अपना लघुकथा संग्रह छपवाऊँगा| उनको इस जमाने के लोग जानते भी नहीं और न पढ़े ही है कभी उनकी कथाएँ |”
“तो आप कैसे जानते है उन्हें ?” रोष छुपाते हुए दूकानदार बोला |

“पिताजी कहते थे बहुत अच्छे लघुकथाकार थे वह | लिखना है तो उनकी कथाएँ गहराई से पढ़ो | आजकल तो तुम जानते ही हो सब ऐसे ही खेल चलता है| साहित्य बेचते-बेचते इतना अनुभव तो तुम्हें भी हो ही गया होगा | आखिर ये बाल धूप में तो सफेद नही ही हुए होंगे तुम्हारे|” व्यंग्य भरी मुस्कान के साथ ग्राहक बोला |

“हाँ साहब, बस लहू न सफ़ेद हो रहा| और तो और यह उबलता भी न अब किसी बात पर |”

 

*सविता मिश्रा

श्रीमती हीरा देवी और पिता श्री शेषमणि तिवारी की चार बेटो में अकेली बिटिया हैं हम | पिता की पुलिस की नौकरी के कारन बंजारों की तरह भटकना पड़ा | अंत में इलाहाबाद में स्थायी निवास बना | अब वर्तमान में आगरा में अपना पड़ाव हैं क्योकि पति देवेन्द्र नाथ मिश्र भी उसी विभाग से सम्बध्द हैं | हम साधारण गृहणी हैं जो मन में भाव घुमड़ते है उन्हें कलम बद्द्ध कर लेते है| क्योकि वह विचार जब तक बोले, लिखे ना दिमाग में उथलपुथल मचाते रहते हैं | बस कह लीजिये लिखना हमारा शौक है| जहाँ तक याद है कक्षा ६-७ से लिखना आरम्भ हुआ ...पर शादी के बाद पति के कहने पर सारे ढूढ कर एक डायरी में लिखे | बीच में दस साल लगभग लिखना छोड़ भी दिए थे क्योकि बच्चे और पति में ही समय खो सा गया था | पहली कविता पति जहाँ नौकरी करते थे वहीं की पत्रिका में छपी| छपने पर लगा सच में कलम चलती है तो थोड़ा और लिखने के प्रति सचेत हो गये थे| दूबारा लेखनी पकड़ने में सबसे बड़ा योगदान फेसबुक का हैं| फिर यहाँ कई पत्रिका -बेब पत्रिका अंजुम, करुणावती, युवा सुघोष, इण्डिया हेल्पलाइन, मनमीत, रचनाकार और अवधि समाचार में छपा....|