कथा साहित्यलघुकथा

~परिवर्तन ~

“नये साल की वह पहली सुबह जैसे बर्फानीा पानी में नहा कर आई थी ।10 बज चुके थे पर सूर्यदेव अब तक धुंध का धवल कंबल ओढ़े आराम फरमा रहे थे । सुषमा ने पूजा की थाली तैयार की और ननद के कमरे में झांक कर कहा,” नेहा! प्लीज नोनू सो रहा है ,उसका ध्यान रखना।मैं मंदिर जा कर आती हूँ ।”

शीत लहर के तमाचे खाते और ठिठुरते हुए उसने मंदिर वाले पथ पर पग धरे ही थे कि उसके पैरों को जैसे जकड़ लिया तीखी आवाजों ने | सहसा आवाज़ शोर में तब्दील हो रही थी | माहौल गर्म हो उठा था मुहल्ले का |
“मारो सालो को, काट दो सालो को | इनकी बहु -बेटियाँ भी न बचने पाएँ |” आक्रामक आवाजें गूंज उठी थी
सुषमा डर से थर-थर कांपने लगी| खुद को बचाए या घर में छोड़ आए अपने बेटे नोनू और ननद को | दरवाज़ा तो ऐसे ही ओढ़का आई थी | घर की ओर लपकी | उधर से भी वैसा ही शोर कानों में पड़ने लगा | मन्दिर की सीढ़ी पर ही उसके पाँव स्थिर से हो गए थे|
पंडित जी फ़रिश्ते की तरह लपके और उसका हाथ पकड़ उसे लगभग घसीटते हुए मन्दिर के अंदर करके दरवाजा बंद कर लिए|
“पंडित जी मेरी ननद और ..|”
“पहले अपनी जान बचाओं फिर ननद की सोचना |”
“ऐसे कैसे पंडित जी, ननद मेरी जिम्मेदारी है, उसको कुछ हो गया तो मैं अपने पति को क्या जबाब दूंगी | और मेरा नन्हा बच्चा भी है उसके साथ |”
“चिंता न करो! भगवान रक्षा करेंगे उन दोनों की भी |”
“नहीं पंडित जी मुझे जाना होगा, मैं हाथ पर हाथ धरे बैठी रही तो मेरी दुनिया लुट जाएगी | भगवान भी तो उसकी मदद करते हैं न जो खुद की मदद के लिए आगे बढ़ता हैं |” कहते हुए दरवाज़ा खोल निकल आई बाहर |”
शोर रह-रह अब भी सुनाई दे रहा था | पंडित जी भी उसके साथ हो लिए|
“पंडित जी आप !”
“हाँ बेटी जब तुझमें इतनी हिम्मत है तो फिर मैं क्यों कायर बनूँ | मेरे लिए तो पूरा मुहल्ला मेरा परिवार है |सब की सुरक्षा मेरी भी तो जिम्मेदारी हैं |”
हिन्दू धर्म का झुण्ड मिलता तो गायत्री मन्त्र पढ़ने लगते और मुसलमानों का झुण्ड सामने पड़ता तो आयतें बोलने लगते |
इस तरह बचते-बचाते सुषमा को उसके घर सुरक्षित पहुंचा चलने को हुए तो सुषमा सशंकित हो बोली- “पंडित जी आप ब्राहमण है ?”
“नहीं बेटी जन्म से तो मैं ब्राहमण नहीं हूँ| भटका हुआ बेरोजगार मुश्लिम नवजवान था| लेकिन मंदिर के पुजारी से ऐसी ही एक घटना के बाद मैं बहुत प्रभावित हुआ | फिर मैंने उनसे वेद-पुराण की शिक्षा ली| उनके देहावसान के बाद मैं इस मन्दिर का पुजारी बन गया | जैसे उस दिव्य आत्मा के जैसे मैं भी दोनों धर्म के बीच सद्भावना जगाने की कड़ी बन सकूँ|”
माहौल भी थोड़ा नर्म हो गया था| अब सूरज भी अपनी कमरी छोड़ जाग चूका था | सुषमा आयत और गायत्री मन्त्र के कुछ शब्दों को बुदबुदा नए साल का संकल्प ले चुकी थी |सविता

*सविता मिश्रा

श्रीमती हीरा देवी और पिता श्री शेषमणि तिवारी की चार बेटो में अकेली बिटिया हैं हम | पिता की पुलिस की नौकरी के कारन बंजारों की तरह भटकना पड़ा | अंत में इलाहाबाद में स्थायी निवास बना | अब वर्तमान में आगरा में अपना पड़ाव हैं क्योकि पति देवेन्द्र नाथ मिश्र भी उसी विभाग से सम्बध्द हैं | हम साधारण गृहणी हैं जो मन में भाव घुमड़ते है उन्हें कलम बद्द्ध कर लेते है| क्योकि वह विचार जब तक बोले, लिखे ना दिमाग में उथलपुथल मचाते रहते हैं | बस कह लीजिये लिखना हमारा शौक है| जहाँ तक याद है कक्षा ६-७ से लिखना आरम्भ हुआ ...पर शादी के बाद पति के कहने पर सारे ढूढ कर एक डायरी में लिखे | बीच में दस साल लगभग लिखना छोड़ भी दिए थे क्योकि बच्चे और पति में ही समय खो सा गया था | पहली कविता पति जहाँ नौकरी करते थे वहीं की पत्रिका में छपी| छपने पर लगा सच में कलम चलती है तो थोड़ा और लिखने के प्रति सचेत हो गये थे| दूबारा लेखनी पकड़ने में सबसे बड़ा योगदान फेसबुक का हैं| फिर यहाँ कई पत्रिका -बेब पत्रिका अंजुम, करुणावती, युवा सुघोष, इण्डिया हेल्पलाइन, मनमीत, रचनाकार और अवधि समाचार में छपा....|