पिता का घर
आखिरकार अंतिम बस भी निकल गयी लेकिन राज नही आया। जाने कितनी देर से वह उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। आज वह उसके लिये अपने पिता का घर भी छोड़ आई थी। उसने राज को सब कुछ बताने के बाद शाम को यहीं मिलने को कहा था लेकिन अब न तो वह उसका फोन ‘रिसीव’ कर रहा था और न ही कहीं नजर आ रहा था। समय बढ़ने के साथ साथ उसका इंतजार अविश्वास में बदलने लगा था। वह समझ नही पा रही थी कि अब वह क्या करे और कहाँ जाये ?
आसपास आवाजाही बहुत कम हो गयी थी और रात गहराती जा रही थी। अचानक सामने से राज के ‘बॉस’ को आते देख कर वह असमंजस से भर गयी।
“बेटी, तुम यहाँ राज का इंतजार कर रही हो न !” बॉस ने उसके पास आकर उससे सीधा ही प्रश्न किया।
“हाँ सर…लेकिन आप ! राज नहीं आया, क्या वह किसी काम में फंस गया ?” उसने एक साँस में बहुत कुछ पूछ लिया।
“देखो बेटी! जो मैं कह रहा हूँ उसे ध्यान से सुनो।” उन्होंने अपनी गहरी नजरें उस पर टिका दी। “राज नही आयेगा, शायद कभी नहीं क्योंकि वह आज दोपहर ही ‘रिजाइन’ कर अपने परिवार…” एक क्षण रुककर उन्होंने अपनी बात पूरी की। “…. मेरा मतलब, अपनी पत्नी के पास चला गया है।”
“ओह नो ! उसने मुझे धोखा दिया।” एकाएक वह परेशान हो गयी।
“बेटी मैंने कई बार कहना भी चाहा पर शायद तुम दोनों में ये सिर्फ मित्रता का ही संबंध हो, ऐसा सोचकर कुछ नहीं कहा। लेकिन आज ऑफिस में आये तुम्हारे फ़ोन, और वार्तालाप सुनने के बाद कहने के लिए कुछ शेष नही रहा था।”
“सर, मैं ही पागल थी जो सब जानते हुए भी उसके साथ घर बनाने के सुहाने सपने देखती रही।” उसकी आँखों में आंसू आ गए।
“बेटी, इस उम्र में देखे गए सपने, रेगीस्तान में चमकते पानी की तरह अक्सर मृगमरीचिका ही साबित होते है और वैसे भी जो घर तुम बसाने जा रही थी वह घर नही मात्र लिव-इन-रिलेशनशिप की क़ैद थी।”
“लेकिन मैं तो ऐसे रास्ते पर आ गयी हूँ सर, जहां मेरे लिए अपना घर भी पराया हो गया है।” वह सुबकने लगी।
“नहीं बेटी, बच्चों के लिये पिता का घर कभी पराया नही होता। आओ मैं तुम्हे घर छोड़ दूँ, रात बहुत हो चुकी है।” कहते हुए उन्होंने उसका हाथ थाम लिया।
विरेंदर ‘वीर’ मेहता