लघुकथा : दिखावटी श्रद्धा
“अरे मम्मीजी आपको कुछ चाहिए था तो मुझे आवाज दे देंती, डाक्टर ने आपको आराम करने को बोला है,चलिये आप आराम कीजिए” आशीष अपनी पत्नी रश्मि को माॅ का हाथ पकड रसोई से निकलते हुए खुशी से देख रहा था।माँ को उनके कमरे में लिटा कर रश्मि रसोई समेटने चली गई, आशीष भी माँ को दवाई देने चला गया।माँ बहुत खुश थी, बोली रश्मि बहुत अच्छे से ख्याल रख रही है।
आशीष थोडी देर बाद सोने के लिए कमरे में गया तो देखा रश्मि नहीं थी, रसोई में भी रश्मि को न पा कर उसके कदम छत की ओर जाने वाली सीढियों की तरफ बढ गए, जैसे ही ऊपर पहुंचा तो रश्मि किसी से बात कर रही थी,” हाँ यार पतिदेव अपनी माँ के पैर दबा रहे हैं और मैं तो इस बुढिया की सेवा का नाटक करते करते थक गई हूँ, बुढिया को हर चीज हाथ में देते देते खीझ जाती हूँ, यार अभी आशीष सामने बैठा देख रहा था नहीं तो बुढिया थोडे बरतन धो दे देती तो अच्छा होता. पर क्या करूँ वसीयत इसी बुढिया के नाम हैं और अगर मैंने इसी तरह नौटंकी नहीं की तो मुझे डर है कहीं वसीयत बुढिया ननद के नाम ना कर दे और पता नहीं कितना इंतजार करना पडेगा” चल कल बात करती हूं, अभी बुढिया को दूध भी देना है और सुबह से फिर सेवा करनी है.”
फोन बंद कर जैसे ही वो पलटी आशीष सामने खडा था और आशीष के चेहरे पर रश्मि को उसकी मां के लिए अपनी दिखावटी श्रद्धा साफ नजर आ रही थी।
— संयोगिता शर्मा