ग़ज़ल
ये जालिमों की बस्ती है न है ठौर न ठिकाना
कभी भूलकर यहाँ न चाहत का घर बनाना ।
हँसकर निकल जाते है लोग यहाँ संगदिल
भूल से भी इनको न यूँ दर्दे-दिल सुनाना।
दिल करता है भूल जाएँ बीती हुई वो बातें
दिल ही निकाल दूँ मुझे आता नहीँ भुलाना।
सहकर के बेरुखी अपनाया इस जहाँ को
फिर न जाने क्यो हमसे जलता रहा जमाना ।
सूरत वो धुंधली सी बचपन की आँखों मे है
मैं रूठी तो किसीका हँसकर मुझे मनाना।
इस शहर में थे तन्हा हम तन्हा ही जा रहे हैं
इतनी है बस गुज़ारिश हमें न भूल जाना।
सुन उस जहाँ मे तेरी पहुँचेगी सदाएँ कैसे
तुमको कसम है रोकर आवाज़ न लगाना।
सहते सहते जानिब पत्थर के हो गये हैं हम
दिल भी नहीँ रहा दिल न वो ही रहा दीवाना ।
— ‘जानिब’