वाह ज़माना क्या कहने
हम अपने घर में बेगाने वाह ज़माना क्या कहने
दुनिया गढ़ लेती अफ़साने वाह ज़माना क्या कहने
युग समाज़वादी का मतलब लूट भूख और बेकारी
सच्चे माने कोई न जाने वाह ज़माना क्या कहने
दागी नेता ढोंगी बाबा काले धन के व्यापारी
जनता सबकी नस नस जाने वाह ज़माना क्या कहने
आयेगी वो सुबह कभी तो जिसकी आस लगाये हैं
आँख लगी अब तो पथराने वाह ज़माना क्या कहने
छद्मम् छल कपट हेरा फेरी हर रिश्ते में स्वार्थ निहित
हम जैसे हो गये दिवाने वाह ज़माना क्या कहने
जनता त्रस्त दिखी डेंगू से और हमारे नेता गण
कह देते हम हैं अनजाने वाह ज़माना क्या कहने
कोख के जाए आँख के तारे ऐसे तोता चश्म हुए
ब्याह हो गया क्यों पहचाने वाह ज़माना क्या कहने
देश की खातिर लड़ सीमा पर सीने पे गोली खाई
नेता उन्हें लगे बिसराने वाह ज़माना क्या कहने
घर में तो माँ बाप वृद्ध हैं उनकी सेवा कौन करे
घर ज़माई बन गए सयाने वाह ज़माना क्या कहने
जीते जी तो हांल न पूछा धूम धाम से श्राद्ध किया
यूँही पितर ऋण लगे चुकाने वाह ज़माना क्या कहने
— मनोज श्रीवास्तव