अवकाश प्राप्ति के बाद आपका जीवन
भारत में लोग किसी सरकारी, अर्द्धसरकारी या निजी संस्थान में 30 वर्ष या उससे भी अधिक समय तक सेवा करने के पश्चात् 60 वर्ष की आयु में अवकाश प्राप्त कर लेते हैं। ऐसे लोग आर्थिक चिन्ताओं से प्रायः मुक्त रहते हैं, क्योंकि या तो उन्हें सरकार से पेंशन प्राप्त होती है या अवकाश प्राप्ति के समय उनको अपने नियोक्ता संस्थान से पीएफ आदि के रूप में इतना धन मिल जाता है कि उसको बैंक में जमा करके उससे प्राप्त होने वाले ब्याज से ही अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेते हैं। इसलिए इस लेख में मैं यह मान रहा हूँ कि उनको कोई आर्थिक चिन्ता नहीं है और वे अपने पुत्र-पुत्रवधू-पौत्र-पौत्री के साथ निवास कर रहे हैं तथा उनकी पत्नी या पति भी साथ ही रह रहे हैं।
ऐसे में यह एक बड़ा प्रश्न है कि अवकाशप्राप्ति के बाद का समय उनको कैसे गुजारना चाहिए, उनकी सामान्य दिनचर्या क्या होनी चाहिए, जिससे कि वे वृद्धावस्था में भी स्वस्थ और सुखी रहें। यहां मैं इन प्रश्नों का उत्तर देने की कोशिश करूँगा।
यदि आपको अब कभी किसी कार्यालय या दुकान में नहीं जाना, तो इसका मतलब यह नहीं है कि आप किसी कार्य के योग्य नहीं रहे। आप घर पर रहकर भी बहुत से ऐसे कार्य कर सकते हैं जिससे परिवार को आपकी उपस्थिति का लाभ मिले। दूध लाना, सब्जी लाना, बाजार से छोटी-मोटी वस्तुएं ला देना, पौत्र-पौत्री को विद्यालय छोड़ देना या वहाँ से लाना और उनको पढ़ाई या होमवर्क में सहायता कर देना ये कुछ ऐसे कार्य हैं जो छोटे लगते हुए भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। यदि घर का ही कोई व्यक्ति ये कार्य करता है तो सबसे अच्छा है, क्योंकि इन कार्यों के लिए किसी बाहरी व्यक्ति पर अधिक निर्भर नहीं रहा जा सकता।
आप परिवार के लिए उपयोगी बने रहें, इसके लिए यह आवश्यक है कि आप स्वस्थ रहें, ताकि परिवार वाले आपको बोझ न समझें। हालांकि 60 वर्ष या उससे अधिक की उम्र में अनेक शारीरिक कष्ट हो जाना स्वाभाविक है, लेकिन नियमित दिनचर्या, हल्के व्यायाम और उचित खान-पान से आप उन कष्टों पर विजय पा सकते हैं और उनसे मुक्त रह सकते हैं। इसके लिए अपनी सुविधा के अनुसार प्रातः निर्धारित समय पर उठें। शौच आदि के बाद प्रातः भ्रमण करने निकल जायें। किसी निकट के पार्क में जाकर कुछ योग और प्राणायाम करें। प्रातःकाल कम से कम एक घंटा खुले वातावरण में अवश्य गुजारें। नियमित प्रातः भ्रमण और योग-प्राणायाम वृद्धावस्था में स्वस्थ रहने का मूलमंत्र है।
स्वस्थ रहने के लिए अपने खान-पान पर नियंत्रण करना भी आवश्यक है। वृद्धावस्था में पाचनशक्ति वैसे भी निर्बल हो जाती है इससे आप सभी प्रकार के खाद्य नहीं खा सकते। इसलिए हमेशा ऐसी वस्तुएं खानी चाहिए जिनको आप आसानी से खा सकें तथा पचा भी सकें। इनमें उचित मात्रा में दूध और दही के साथ कुछ ऐसे फल भी अवश्य होने चाहिए जिनको आप खा सकते हैं। यदि आपके दाँत सही हैं यानी भोजन को चबाकर खा सकते हैं तो उसका पूरा लाभ उठाना चाहिए और भोजन को खूब चबा-चबाकर खाना चाहिए, जिससे वह सरलता से पच जाये। यदि आपके दाँत गिर गये हैं और रोटी को ठीक से नहीं चबा सकते, तो ऐसी वस्तुओं का सेवन करना चाहिए जिनमें चबाने की आवश्यकता कम पड़ती हो, जैसे दलिया, खिचड़ी, उपमा, इडली आदि। ऐसी वस्तुओं को भी निगलने से पहले खूब चुभलाना चाहिए ताकि उसमें लार मिलकर लुगदी सी बन जाये। तब उसको पचाना सरल हो जाता है।
मूल बात यह है कि अपनी पाचन शक्ति से अधिक मात्रा में कोई भी वस्तु कभी नहीं खानी चाहिए। बाजारू खाद्यों, पेयों, फास्टफूड आदि से जितनी दूरी बना सकें बनाये रखें। घर का बना हुआ सात्विक भोजन अमृत तुल्य होता है, जिसका बराबरी बाजार का कोई भी खाद्य पदार्थ कभी नहीं कर सकता।
वृद्धावस्था में कभी कभी समय काटना कठिन हो जाता है। ऐसी स्थिति में समाचार पत्रों के साथ अच्छे ग्रंथों जैसे गीता, रामायण, रामचरित मानस, इतिहास सम्बंधी पुस्तकों तथा साहित्यिक पुस्तकों का पठन करना चाहिए। इस उम्र में आँखें और कान कमजोर हो जाते हैं अतः फिल्मों से बचना ही ठीक है। कभी-कभी टीवी पर समाचार आदि देखे जा सकते हैं।
परिवार के साथ रहते हुए आपका व्यवहार भी आपके स्वास्थय और सुख में बड़ी भूमिका निभाता है। आपको पारिवारिक निर्णयों में कभी हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और अपने बच्चों को अपने निर्णय स्वयं करने देना चाहिए। जब तक वे स्वयं आपसे सलाह न माँगें तब तक कोई सलाह न दें और उनके निर्णयों पर टीका-टिप्पणी भी न करें। जो हर बात में अपनी चलाते हैं और टाँग अड़ाते हैं, ऐसे बुजुर्ग परिवार में अपना सम्मान जल्दी खो देते हैं। आपने अपने बच्चों को जैसे संस्कार दिये हैं उनको उनके अनुसार ही जीने दें। इस स्थिति में आप चाहते हुए भी उनको कोई नया संस्कार नहीं दे सकते और न पुरानी आदतों को बदल सकते हैं। यदि कोई कार्य आपकी इच्छा के विरुद्ध या गलत हो रहा है, तो उसे होने देना और मौन रहना ही सर्वश्रेष्ठ विकल्प है।
यदि आपके पौत्र पौत्री घर में आपके साथ हैं तो कुछ समय उनके साथ भी अवश्य बितायें। उनके साथ खेलें और बातचीत करें। खेल-खेल में आप उनको बहुत कुछ सिखा सकते हैं। यदि उनकी पढाई और गृहकार्य में सहायता कर सकते हैं तो अवश्य करें, लेकिन उनकी इच्छा होने पर ही। जबर्दस्ती उनकी पढ़ाई में हस्तक्षेप न करें।
घर में आने वाले व्यक्ति यदि आपके परिचित हों तो आप उनसे कुशल क्षेम पूछ सकते हैं यदि वे स्वयं आपके पास आयें, अन्यथा उनको उपेक्षित कर देना ही उचित है। व्यर्थ की पूछताछ करके स्वयं को उनके ऊपर न थोपें। किसी भी हालत में अपने किसी परिचित या अपरिचित से अपने पुत्र या पुत्रवधू की बुराई न करें, भले ही उनका व्यवहार कैसा भी हो, अन्यथा आप बहुत शीघ्र अपने ही परिवार में अपना सम्मान खो देंगे।
यदि आप सक्षम हैं और समाज सेवा में रुचि रखते हैं तो अपना कुछ समय उनको दे सकते हैं। यह पूरी तरह आपकी रुचि और अवसरों की उपलब्धता पर निर्भर करता है। परन्तु समाज सेवा के चक्कर में अपने परिवार को उपेक्षित न करें।
यदि किसी कारणवश आपके पुत्र या पुत्रवधू या दोनों का व्यवहार आपके लिए असहनीय हो गया है, तो अपनी अलग व्यवस्था कर लेना या किसी वृद्धाश्रम की शरण लेना ही आपके लिए उचित होगा। अपनी प्रसन्नता और शान्ति के लिए परिवार का मोह छोड़ना ही सबसे अच्छा उपाय है। लेकिन अपने निर्णय की पूर्व जानकारी उनको अवश्य दे दें तथा भविष्य में भी उनसे सम्पर्क बनाये रखें।
यदि आप इन बातों को ध्यान में रखते हुए जियेंगे, तो आपका शेष जीवन सुख से बीतेगा।
— विजय कुमार सिंघल
आश्विन शुक्ला प्रतिपदा, सं. २०७३ वि. (१ अक्तूबर, २०१६)