मेरे मुक्तक
श्रृंगार
लिए कंचन सी’ काया वो,उतर आई नजारों में ।
करें वो बात बिन बोले,अकेले में इशारो में ।
बिना देखे कही पर भी,मिले ना चैन अब मुझको,
गगन के चाँद जैसी वो,हसीं लगती हजारों मे ।
प्रेम
सभी करते मो’हब्बत पर,झलकता प्रेम ये कैसा ।
मो’हब्बत प्रीत है दिल की,रखो इसको सदा वैसा ।
करो गन्दा न इसको तुम,जमाने की निगाहों में ।
मो’हब्बत राह है ऐसी,जहाँ नहि काम का पैसा ।
चेतावनी
सुधर जाओ दरिन्दों तुम,अगर जो जान है प्यारी ।
नही सुधरे जो’ जल्दी तुम,करो ऊपर की तैयारी ।
अगर जो ठान ले हम फिर,बचा कोई न पायेगा ।
कहो तो हम अभी करदें,तुम्हारा अब टिकट जारी ।
श्रृंगारिक
चला चल चाँद के पीछे,दिलो में प्रीत फिर होगी ।
निशा आई उजाले भर,अमन की जीत फिर होगी ।
जमाना क्या कहेगा सोचकर,मत हार तुम जाना ।
दिलो को जीत लेने की,नई सी रीत फिर होगी ।
शिक्षा
करो सब ही पढ़ाई तुम,उजाला ज्ञान से कर दो ।
बहुत गहरा अँधेरा है,इसे दीपक जला हर दो ।
पसारो ज्ञान को भाई,बहिन बेटी वतन में तुम ।
जमाने से मिटा नफरत,दिलो में प्रेम को भरदो ।
✍?नवीन श्रोत्रिय “उत्कर्ष”