मेरी कहानी 170
सुबह उठ कर तैयार हुए और ब्रेकफास्ट के लिए डाइनिंग रूम में आ गए। ब्रेकफास्ट हमेशा सैल्फ सर्विस ही होती थी। हर कोई प्लेट हाथ में ले कर अपनी पसंद के खाने उस में डाले जाता था । तरह तरह के सीरियल, बनज़, ब्रैड ऐंड बटर, जुइस और इतने खाने होते थे कि सोचना मुश्किल होता था कि क्या लें, क्या छोड़ें। अंडे उसी वक्त हर किसी की पसंद के फ्राई करते थे। बहुत से मसाले रखे होते थे और हम उस शैफ के कप्प में अपनी मर्ज़ी के मसाले डाल देते और वोह शैफ अंडे तोड़ कर कप्प में डाल देता और उस को अछि तरह फैंट कर बड़े से तवे पर डाल कर एक मिंट में फ्राई करके प्लेट में डाल देता। हर खाने की भरी ट्रे में से थोह्ड़ा थोह्ड़ा भी हम लेते, प्लेट ऊपर तक भर जाती। इतना खा तो हम से होता नहीं था लेकिन खाने इतने मज़ेदार होते थे, कि कुछ भी छोड़ने को दिल मानता नहीं था। यह हमारा नहीं, सभ का हाल यही होता था। जब हम अपने टेबल पर आये तो सामने वाली गोरी बुढ़िया और उस की बेटी की प्लेटें भी हमारी तरह ऊपर तक भरी हुई थी । एक दूसरे की प्लेटें देख कर हम सब हंस पड़े। गोरी बुढ़िया की लड़की, जिस का नाम मुझे भूल गया है, शायद अनीता था, हंस कर बोली,” i wanted to taste everything ! “, वोह खाये जा रही थी और लवली लवली कहे जा रही थी। अब हम बातें करने लगे थे। लड़की की कलाई पर हिंदी में अनित्य लिखा हुआ था । बस यही से हमारी बातें शुरू हो गईं और हर रोज़ जब भी टेबल पर बैठते, बातें होती रहतीं।
ब्रेकफास्ट ले कर 9 बजे हम क्रूज़ बोट से बाहर आने लगे। आगे पत्थर की सीड़ीआं ऊपर को जाती थीं। ऊपर सड़क पर पहुंचे तो कोच तैयार थी। आज हमारे साथ हमारी गाइड आईशा थी। उस ने हिजाब पहना हुआ था लेकिन जीन की ट्राउज़र पहने हुए थी और सिगरेट पी रही थी, कपडे बिलकुल कैजुअल थे। जब सब कोच में बैठ गए, आइशा ने अपना परिचय दिया। ” लेडीज़ ऐंड जैंटलमेन, मैं आप की गाइड हूँ, मैं कालज में हिस्ट्री की टीचर थी और अब मैंने यह गाइड का काम शुरू किया है क्योंकि मैं इस को बहुत एन्जॉय करती हूँ, आज मैं आप को वैली ऑफ दी किंग्ज़ की और ले जाउंगी, जिस के बारे में आप सब को मालूम ही होगा “, इस के बाद वोह बैठ गई। अब वक्त था लुक्सर शहर देखने का और यह शहर बहुत साफ़ और सुन्दर दिखाई दे रहा था। अरबी लोग इधर उधर आ जा रहे थे जो घुटनों तक लंबे गैलाबाया पहने हुए थे, सर पर छोटी सी पगड़ी जो बिलकुल साधाहरण ही लिपटी हुई थी, इन में कोई ख़ास फैशन नहीं था जैसे सिख लोग पगड़ी पहनते हैं । देखने को तो इजिप्शियन हमारे जैसे ही थे,लेकिन ज़्यादा तर सब सिर्फ गैलाबाया ही पहने हुए थे। कोई बीस मिंट बाद कोच एक जगह आ कर खड़ी हो गई और एक तरफ बहुत ही बड़े दो बुत्त दिखाई दे रहे थे। यह बहुत ही भारी और कोई बीस पचीस फ़ीट ऊंचे होंगे। कुछ कुछ टूटे हुए थे जो शायद इन्हें ज़मीन से निकालते वक्त टूट गए होंगे। सब लोग इन की फोटो लेने लगे, जसवंत भी फोटो लेने लगा और मैं भी अपने कैमकॉर्डर से इस की मूवी बनाने लगा। आइशा ने बताया कि यह बुत्त बादशाह ऐमन हौतिप तीसरे के थे। यह कौन बादशाह था, इस का हमें कोई पता नहीं था। दस पंदरां मिंट के बाद हम फिर कोच में बैठ गए और कोच आगे चलने लगी। आगे पत्थर के बड़े बड़े चटान शुरू हो गए और चढ़ाई भी। सड़क के दोनों तरफ बस पत्थर ही पत्थर दिखाई देने लगा। यह बिलकुल ऐसा था जैसे अजंता और एलोरा केव्ज़ की बड़ी बड़ी चटाने हैं और इन पत्थरों को काट कर केव्ज़ सी बनी हुई दिखाई देने लगीं। काफी चढ़ाई चढ़ कर एक जगह कोच खड़ी हो गई, यह पार्किंग एरिया था और यहां बहुत सी दुकाने भी थीं। कोच में से निकल कर हम बाहर एक जगह सब इकठे हो गए। अब आइशा ने बताया कि इस एरिए को वैली ऑफ दी किंग्ज़ बोलते हैं। हर बादशाह की मृतु के बाद उन की अपनी केव बनाई जाती थी, जिस में उन का अपना ही टूम्ब होता था। इस टूम्ब की दीवारों और छतों पर उस का कुछ इतिहास लिखा जाता था, इतिहास के सीन के मुताबिक पेंटिंग्ज बनाई जाती थी जैसे आज कल स्लाइड बनाते हैं। जो कोई बादशाह, उस की रानी या सर्वेन्ट बोलता था, उसी तरह का सीन बनाया जाता था और साथ में उस वक्त की इजिप्शियन भाषा में लिखा भी जाता था कि वोह क्या कह रहे थे।
हर टूम्ब को जाने के लिए टिकट की जरूरत थी लेकिन हमारे टिकट आइशा के पास होते थे जिन की कीमत हम ने अपनी हॉलिडे पैकेज में ही अदा कर दी थी। दूर तक नज़र से देख कर मालुम हो गया कि यहां टूम्ब बहुत थे क्योंकि उन के मुख दुआर दिखाई दे रहे थे, इसी लिए ही तो इस का नाम वैली ऑफ दी किंग्स था क्योंकि यह सभी टूम्ब बादशाहों का कबरस्तान ही तो था। दूर तक देख कर यह बिलकुल अजंता एलोरा केव्ज़ की तरह ही दिखाई देता था। आइशा ने टिकट गेट कीपर को दिए और हम टूम्ब के भीतर दाखल होने लगे। जैसे ही हम ने दीवारों और छत पर नज़र दौड़ाई तो देख कर ही अचंबित रह गए। बिलकुल वोह ही था जो हम टीवी डाकूमैंटरी में देखा करते थे। सभ तरफ पेंटिंग्ज ही पेंटिंग्ज थीं, जिन को देखने से पता चल जाता था कि इन तस्वीरों के जरिये उस समय का इतिहास बताया जा रहा था। इजिप्शियन भाषा हर तस्वीर पर लिखी हुई थी, जिन के बारे में आयशा ने बताया था कि बहुत हद तक यह भाषा पढ़ी जा चुक्की है। इन तस्वीरों को देख कर ही पता चल जाता था कि आपस में कोई बात चीत चल रही है या किसी को हुकम सुनाया जा रहा था, किया बात चीत हो रही थी, यह लिखा हुआ था। सिर्फ एक बात की मुझे शंका थी कि यह जो लोगों के सरों पर घोड़े या अन्य जानवरों के मास्क से पहने हुए थे, यह किया था। आइशा ने बताया था कि उस समय लोग बहुत से देवी देवताओं को मानते थे और जिस देवते को वोह मानते थे, उस का ही मास्क पहन लेते थे। उन का विशवास था कि ऐसा करने से वोह देवी देवता उन की रक्षा करेगा।
जैसे जैसे हम आगे चलते गये आगे ढलान ही ढलान थी। सेफ्टी के लिए लकड़ी की रेलिंग बनी हुई थी। यहां फोटो नहीं ले सकते थे। देखते चलते हुए हम एक रूम में पहुँच गए जो होगा कोई पचीस फ़ीट लंबा और इतना ही चौड़ा। इस के बीच बहुत भारी पत्थर का बॉक्स बना हुआ था जो ऊपर से एक पत्थर के ढकन से बन्द किया हुआ था। यह बॉक्स एक आदमी की शक्ल में बना हुआ था और इस पर कई रंगों से पेंटिंग की हुई थी और कुछ लिखा हुआ भी था। आइशा ने बताया कि इस बॉक्स के बीच ही फैरो के शरीर का एक और बॉक्स होता था लेकिन अब यह बॉक्स निकाल कर मयूज़ियम में रखे हुए हैं। आइशा ने बताया कि बादशाह के इसी कमरे में उस का सारा खज़ाना रखा जाता था। जैसे आज कारें हैं, उस समय रथ होते थे और बादशाहों के रथ सोने चांदी के होते थे। उस वक्त यह विचारधारा थी कि जो भी चीज़ बादशाह के लिए बहुत कीमती समझी जाती थी, उस को बादशाह के कौफिन के पास ही रख दिया जाता था। उन का विशवास होता था कि उन के मरने के बाद यह चीज़ें उन को उस दुनिआं में मिल जाएंगी यहां उन्होंने मर कर जाना था। बादशाहों के दूसरे राज्यों पर हमले तो होते ही रहते थे, और बादशाह लोग यह ख़ज़ाने लूट कर ले भी जाते थे, इस लिए इन्हीं केव्ज़ में से और भी केव बनाई जाती थीं, जो दुश्मन को धोखा देने के लिए बनाई जाती थीं और इस को ऐसे बन्द किया जाता था की किसी को पता भी नहीं चलता था। इन्हीं कमरों में से और भी कई गुपत रास्ते बनाये जाते थे और बाद में बन्द कर दिए जाते थे। कहने की बात नहीं, यह पहली ही केव देख कर हम अचंबित रह गए।
पंदरां मिंट बाद हम बाहर आ गए क्योंकि केव्ज़ तो अभी बहुत रहती थीं। जब बाहर आये तो अनीता ने आइशा पे सवाल किया कि इन केव्ज़ को बनाया कैसे गया होगा, तो आइशा बोलने लगी कि यह सारा पहाड़ पत्थर का एक ही टुकड़ा है। जब भी कोई केव बननी शुरू होती थी तो कारीगर इस पत्थर को औज़ारों से धीरे धीरे काटते थे। प्लैन के मुताबिक वोह इस को काटते जाते और आखर में कमरा भी बन जाता। अब इस सारी बनी हुई केव और कमरे को प्लस्तर करना शुरू हो जाता जो दरिया नील की मट्टी से किया जाता था, जिस में वोह कुछ और भी मिलाते थे । यह मट्टी ऐसी होती थी जो सीमेंट की तरह सख्त हो जाती थी। जब सारा टूम्ब प्लास्तर हो कर तैयार हो जाता तो उसे सूखने दिया जाता। जब सूख कर तैयार हो जाता तो पेंटर अपना काम शुरू कर देते। ड्राइंग के मुताबिक कुछ कारीगर पैंसिल जैसी किसी चीज़ से हर सीन की ड्राइंग बनाये जाते। जब हर तरफ ड्राइंग कम्प्लीट हो जाती तो उस को कई दफा चैक किया जाता, ताकि कोई गलती ना रह जाए। आख़री काम था, इस बनी हुई ड्राइंग को रंगों से भरना। यह काम बहुत ही धीरे धीरे होता था ताकि रंगों के बुर्श सही सही पेंट करें।
इधर तो यह काम होता रहता था, उधर मरे हुए फैरो की मम्मी तैयार होने लगती थी। फैरो के शरीर को ऐसे ढंग से तैयार किया जाता था कि उस का शरीर कभी भी खराब ना हो क्योंकि फैरो ने दुसरी दुनिआं में जाना होता था। अगर शरीर ही खराब हो गया तो दुसरी दुनिआं में जाना मुश्किल था। इस शरीर को हमेशा रहने के लिए इस की मम्मी बनाते थे। उस वक्त टैक्नॉलोजी बहुत आगे थी और आज के साइंसदान अभी तक यह पता नहीं लगा पाए कि वोह कौन से कैमिकल इस्तेमाल करते थे। सब से पहले शरीर को उस समय के ऑपरेटिंग रूम में ले जाय जाता था। शरीर के कुछ अंग जो उन के हिसाब से शरीर को खराब कर सकते थे, वोह ऑपरेशन से निकाल देते थे। लिवर गुर्दे और कुछ अंतडियां निकाल देते थे और सब से मुश्किल काम होता था, दिमाग को निकालना। इस के लिए वोह कोई ऐसा औज़ार इस्तेमाल करते थे कि जो नाक के ज़रिये दिमाग तक पहुँच सके। आइशा बता रही थी कि दिमाग को निकालना बहुत ही मुश्किल होता था। जब वोह औज़ार नाक से दिमाग तक ले जाते तो सर पर हाथों से धीरे धीरे थपेड़े लगाते थे और दिमागी हिस्सा निकालते जाते थे। इस को बहुत वक्त लग जाता था। जब शरीर के सभी नाज़ुक हिस्से निकाल दिए जाते तो सारे शरीर पर कई तरह के तेल लगाते जो उस समय के कोई ख़ास कैमिकल होते थे। तेल के बाद सारे शरीर को नमक में रखा जाता था। साईंसदानों का विचार है कि यह इस लिए था कि नमक के ज़रिए शरीर का सारा पानी नमक में ज़ज़्ब हो सके। शरीर में पानी का रहना भी शरीर को खराब कर सकता था।
शरीर के सभी हिस्से निकालने के बाद, रोज़ाना उस पर तेल लगाए जाते और नमक रखा जाता। यह तीन महीने इसी तरह चलता रहता। जब उन के हिसाब से सब कुछ ठीक हो जाता तो आखर में तरह तरह के तेल लगा कर कौटन की लंबी लंबी पट्टीयां लिपटते जाते। यह पट्टीयां सारे शरीर को ढाँप लेतीं, फिर पट्टीयों के ऊपर भी कोई कैमिकल मलते। जब सब कुछ ठीक ठीक हो जाता तो इस के ऊपर शाही गहने और सोने का मुकट पहनाया जाता। बादशाह या फैरो के लिए टूम्ब तो तैयार ही होता था। शाही खानदान के लोग इकठे होते थे और बहुत सी रस्मों के साथ उस को आख़री विदायगी दे दी जाती थी। टूम्ब के बीच पत्थर का एक बड़ा सा कौफिन रखा होता, जिस पर फैरो का चेहरा बना होता था और उस के सर पर ताज और स्पेशल दाहड़ी भी पेंट की जाती थी। बॉक्स को पेंट बहुत से रंगों से किया जाता था और सोने का रंग ज़्यादा इस्तेमाल होता था। इस बड़े कौफिन के बीच में फैरो का स्पेशल कॉफिन रखा जाता था, जिस में कीमती गहने हीरे जवाहरात होते थे। इस कमरे में फैरो की अन्य पसंदीदा चीज़ें रख दी जाती थी, जैसे उस की स्पेशल बनाई गई चारपाई, कुर्सी मेज़, खाने के सोने चांदी के बर्तन और हार शिंगार की चीज़ें। जैसा भी उस का रथ होता था, सोने या चांदी का, वोह भी इसी कमरे में रख दिया जाता था। वोह सभी चीज़ें रख दी जाती थी जो फैरो को पसंद थीं।
अब आख़री काम होता था, टूम्ब के मुंह को बंद करना यानी इस टूम्ब को जाने का मुख दरवाज़ा बंद करना। यह काम भी बहुत महत्व रखता था क्योंकि किसे दूसरे देश के आक्रमण से इस फैरो के ख़ज़ाने का भेद पता ना चले। इस मुख दुआर को बड़े बड़े पत्थरों से बंद किया जाता था और बाहर से इस तरह दिखाई देता था कि जैसे यह एक साधाहरण पत्थर की चटान ही हो। इस वैली में जितने भी फैरो दफनाए गए, उस के मुख दुआर किसी को भी दिखाई नहीं देते थे लेकिन आयशा ने बताया कि हमले होते ही रहते थे। इसी कारण लुटेरों ने बहुत से टूम्ब लूट भी लिए थे। जो बाकी बचे टूम्ब थे, उन को बहुत से अँगरेज़ इतहास्कारों ने ढून्ढ निकाला था और आज जो इजिप्ट का इतिहास इजिप्शियन लोगों के पास है, उनमें अंग्रेजों का बहुत बड़ा किरदार है जो काइरो मयूज़ियम में देखा आ सकता है।
एक के बाद एक टूम्ब हम देखने लगे। कई टूम्ब बहुत बड़े थे और कई छोटे। कई टूम्ब ऐसे थे कि उन का फ्लोर, लैवल होता था और कई ऐसे थे कि बहुत बड़ी ढलान होती। आइशा ने बताया कि इस का कारण कई दफा पत्थर बहुत नरम होता था जो केव के लिए सेफ नहीं था। याद नहीं कितनी केव हम ने देखीं लेकिन हम थक गए थे। अब खाने का वक्त भी हो गया था। आइशा ने हमें कोच में बैठने को कहा। अब भूख भी बहुत चमक रही थी। आयशा ने हमें एक और बात बता दी कि क्रूज़ बोट में जाने से पहले वोह हमें एक और जगह ले जायेगी। चलता. . . . . . . . .