कविता : प्रतिघात
है बदला सा सब कुछ
विश्वास के धागे
अन्तहिन घात
दुरूह हुआ रूदन भी
अर्न्तमन का
कासे कहूँ मन की
अजीब सा पसरा कुछ
रिश्तों की घाटी में
विश्वास व अविश्वास की
पगडण्डियों को
कुचल डाला
मेरे अपनो ने ही
कोई अदृश्य चेहरा
अट्टहास करता सा
लेकर मेरे विश्वास की
चिताग्नि
ओह अब और नहीं
ये कालिमा
ये घात।
अब जरूरी है
कि जिन्दा रहने के लिये
कांट छांट कर
करें सफाई अनचाहे रिश्तों की
मन को शान्ति देने
के लिये प्रतिघात भी जरूरी है।
— अल्पना हर्ष ,बीकानेर