कविता : मन का सूनापन
अजीब सी भटकन है ये
न कोई तयशुदा मंजिल
न रास्ते एक तरफा
भरा भरा सा आंंगन
खाली खाली ये मन
क्यों नही कम होती
दीवारों की लम्बाईयाँ
बढती जाती है चहुँ और
पसरती मौन की बिछावन
है खुला आसमान भी
तारों के जाल से बन्धा बन्धा सा
ये चाँद की रोशनी भी अब
चुभती है आखों को
सुहाते है घने अन्धेरे
जहाँ से मैं दिखाई न दूं
किसी को भी
हो कुछ ऐसा जो दे सुकून
बिखरते अहसासों को
बस अब खत्म हो ये
मन का सूनापन!
— अल्पना हर्ष, बीकानेर