कविता : नरम नाजुक हाथ
पत्थर तोड़ती मैं कर्मठ नारी ,
मत समझो मुझको बेचारी ।
सीने में दिल मैं भी रखती हूँ,
बिटिया मेरी भी बड़ी दुलारी ।
पाल पोस कर बड़ा करूगीं
अपने बल पर खड़ा करूगीं ।
तराश कर इन पत्थरों को,
महल तुम्हारे खड़े करूगीं ।
मत समझो कोमलांगी मुझको,
अट्टालिकाएं मैंने रच डाली ।
दिन रात बैठ इस धरती पर,
कण कण की पूजा कर डाली ।
यह पत्थर ही मेरा घर द्वार,
यह पत्थर ही मेरा बिस्तर है ।
आती थी मैं भी माँ के संग,
वो याद मुझे आज तक है ।
पीढ़ी दर पीढ़ी कर रही,
मेहनत कश इस काम को ।
बना रही पत्थर से पत्थर,
नरम नाजुक इन हाथ को ।
हर महल को छू कर जाती ,
पा जाती मैं अपना अंश ।
मालिक के देखे जाने पर
घड़ी घड़ी दुत्कारी जाती ।
— निशा गुप्ता