नदी का प्रेम
है दूर देश से आई नदी, चलकर सागर के पास। सागर ने ले कर बाहों में, किया खूब स्वागत सत्कार।
बोला सागर सुनो ! प्रिय,
है क्यों. इतनी देर लगाई ।
कब से खड़ा प्रतीक्षारत में, करने तुम्हारी प्रेम अगुवाई ।
साँस खींच फिर बोली नदी,
कुछ क्षण लेने दो विश्राम ।
थे कितने कष्ट उठाए मैंने,
हो तुम इन सबसे अनजान ।
छुप छुप के आई तुमसे मिलने,
फिर भी लोगों ने देख लिया ।
पत्थर अपशब्दों के असीम पड़े,
अपनों ने भी मुँह मोड़ लिया ।
थी ठानी तुमको पाने की,
नहीं किसी की चिंता की ।
घात प्रतिघात सहकर भी,
पास प्रियतम के पहुँच गई ।
सागर बोला धैर्य रखो तुम,
मत तुम इतना घबराओ ।
मीरा का प्रेम सुना तुमने ,
राधा कान्हा के गुन गाओ ।
कृष्ण प्रेम दीवानी मीरा ने,
पी लिया विष का प्याला था ।
कृष्णमय होकर दीवानी ने, संसार अपना रच डाला था ।
सच्चा प्रेम होता अपरिमित,
नहीं उसका कोई आर-पार ।
क्यों भूलरही तुम लैला मजनूं ,
हीर रांझे का सच्चा संसार ।
आत्मिक प्रेम अमर अटूट है,
है नहीं कोई इसका जोड़ ।
नहीं हिम्मत किसी प्राणी में,
जो दो आत्माओं को दे तोड़ ।
— निशा गुप्ता ( तिनसुकिया, असम )