लो फिर आ गया
आज चाँद मुझसे बोला
अरे ! सुनो
मैं फिर आ गया
और तुम अब तक
बैठे हो उदास,
मैं हर सुबह पराजित होता हूँ
उस शक्तिशाली सूरज से
और फिर हर शाम
हिम्मत जुटा
अंधेरे को चीरता हुआ
अपनी चाँदनी बिखेरता हुआ
चला आता हूँ ।
उसका शासन सिर्फ
दिन पे ही चलता है
बहुत डरपोक है वह
सिया रंग देखते ही
दुम दबाकर भाग जाता है ।
मैं , हाँ मैं
अंधेरे को जीतने की
हिम्मत रखता हूँ ,
बिंदास चला आता हूँ
उसे काटते हुए ।
एक तुम हो –
जरा सी ठोकर से
बेचैन हो जाते हो
हौसला खो देते हो,
सुनो ! ध्यान से सुनो
जीत का सुख
अनायास नहीं मिलता ,
सप्रयत्न हासिल करना
पड़ता है।
मनहुसियत छोड़कर
कर्मठ बनो ।
रोड़ा बने शत्रु को
रोंद दो पैरों तले
फतेह का झंडा पकड़कर
मंजिल को पाने के लिए
स्थिरप्रज्ञ बनो, सचेत हो
डटे रहो ।
तुम्हारी एक हुंकार से
रास्ता साफ हो जाएगा ।
अंधेरा धराशायी होकर
चीखेगा चिल्लायेगा,
फतेह का तिरंगा लहरायेगा ।
— निशा गुप्ता
तिनसुकिया, असम