गीत : अरबी घास पकड़कर बैठे हैं
(सिविल कोड और तीन तलाक पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा संविधान का अपमान और कुतर्क किये जाने पर उसको आईना दिखाती मेरी नई कविता)
समरसता की हरी चादरें देखो मैली हो बैठी
गंगा जमुनी धाराएं भी आज विषैली हो बैठीं
हम अब भी भाईचारे की आस पकड़कर बैठे हैं
लेकिन वो हाथों में, अरबी घास पकड़कर बैठे हैं
हमको बदले मौसम के अंदाज़ रंगीले भाते हैं
लेकिन उनको रेगिस्तानी ऊँट कबीले भाते हैं
हमने सोचा सवा अरब के भारत की खुशहाली हो
हो समान कानून यहाँ पर, दूर सभी बदहाली हो
सबके सर पर छत समान, सबका आधार बराबर हो
नर नारी का इस भारत में भी अधिकार बराबर हो
भूत भुला, पोषित भविष्य हो, वर्तमान की छाया में
हिन्दू मुस्लिम करें तरक्की संविधान की छाया में
लेकिन वो तो अब भी बैठे खच्चर वाली गाड़ी में
औरत का हक़ लटक रहा है, मौलाना की दाढ़ी में
विधि आयोग ज़रा सा जागा, होश गंवाकर बोले हैं
बिना मूंछ के मुंह में कड़वा पान चबाकर बोले हैं
भारत के कानूनों की औकात बताकर बोले हैं
संविधान को अपनी टेढ़ी आँख दिखाकर बोले हैं
सिविल कोड को गाली दी है, मज़हब की तकरीरों से
न्यायालय को डरा रहे हैं, खून सनी शमशीरों से
ऐसे अंधे लोगों से तकदीर न जाने क्या होगी
आने वाले भारत की तस्वीर न जाने क्या होगी
तुम शरिया कानून पकड़कर दरबारों में बैठे हो
लोकतंत्र को कोस कोस कर सरकारों में बैठे हो
शरिया से बतलाओ, कितना रोशन ये संसार हुआ
अविष्कार कब हुए, बोलिये कब मानव उद्धार हुआ
शरिया अपनाकर, बोलो कितने हमीद कुर्बान हुए
शरिया अपनाकर, बोलो कितने रहीम-रसखान हुए
शरिया को अपनाकर, कितने अशफ़ाक़ों के “राम” हुए
शरिया को अपनाकर, बोलो कितने पूत “कलाम” हुए
शरिया को अपनाकर बोलो दुनिया कब अफ़रोज़ हुयी
शरिया को अपनाकर बोलो कितनीं मंगल खोज हुयी
शरिया ने कितने कम्प्यूटर दुनिया में ईज़ाद किये
कितनी बनी दवाई, कितने घर आँगन आबाद हुए
पूँछ रहा हूँ, नए दौर में, आखिर इल्म पुराना क्यों
मर्द मज़े केवल मारे, ज़ुल्मों को सहे जनाना क्यों
मज़हब है या दुनिया में षड़यंत्र बना कर रक्खा है
औरत को बच्चा देने का यंत्र बनाकर रक्खा है
जितना चाहा चूसा, गुठली बची, और फिर छोड़ दिया
तीन तलाक बोलकर उस अबला से रिश्ता तोड़ दिया
कवि गौरव चौहान कहे, ये कैसी मज़हबगर्दी है
औरत है मशीन केवल, ये सोच बड़ी नामर्दी है
जब रसूल ने दिया बराबर हक़ सबको,वफिर लफड़ा क्यों
पाक, बांग्ला, मान गए फिर भारत में ही झगड़ा क्यों
अरे मुसलमानों, तय कर लो, मज़हब का पैगाम चले
अल्ला का इस्लाम चले या मुल्ला का इस्लाम चले
— कवि गौरव चौहान
(मुसलमान भाई भड़के नहीं, बस ज्ञान के आधार पर तर्क सहित अपनी दलीलें दें, जाहिलों की गालियां और धमकियाँ आमंत्रित हैं।)