आंतरिक जीवन ही महानता का सच्चा मार्गदर्शक है
गौरतलब है कि हममें से अधिकतर लोग “जीवन की यथार्थता” को या तो समझने की कोशिश नही करते, या फिर जब समझना चाहते है तो सुनहरा वक्त गुजर चुका होता है । कुछ लोगों का यह भी कहना है कि ” जब जगो तभी सवेरा” । बात तो उनकी भी ठीक है कि जागृति आए तो सही, भले ही देर से आए परन्तु यदि सूर्य देव प्रात:काल के बजाय मध्यान:काल में अपनी लालिम किरणों को हमारे बीच में बिखेरें , तो दिन तो होगा ही, मगर वह दिन शायद आधा-अधूरा ही होगा ? ध्यातव्य यह है कि यदि व्यक्ति वक्त रहते स्वयं को जागृत नहीं करता तो एक न एक दिन वक्त स्वयं ही उस व्यक्ति को जागृत कर ही देता है । यह भी सच है कि विलम्ब से जागृत हुआ व्यक्ति उस स्व-जागृति का उतना समर्थ्य उपयोग नहीं कर पाता, जितना की समय रहते स्व-जागृति होकर कर सकता था ।
महान चिंतक हेनरी फेड़रिक ने ठीक कहा था –
“वह व्यक्ति जिसका आंतरिक जीवन नहीं है, अपनी परिस्थितियों का गुलाम है ।”
आंतरिक जीवन की समृद्धि अन्तःकरण के द्वारा ही सम्भव है । अन्तःकरण हृदय को कहा गया है । मानव शरीर के सभी अंगो में हृदय का स्थान सर्वोपरि है । मानव तन का मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार मानव रूपी मंदिर के आभूषण हैं । मन प्रेरक है, बुद्धि का कार्य चिंतन है, हृदय का कार्य उद्गार व्यक्त करना है एवं चित्तवृत्ति का सम्बंध सचेतन से है । जब ये सब मिलते हैं तो रचनात्मकता लाते है और अलग अलग रहते हैं तो विकृति पैदा करते हैं । ऐसी स्थिति में इन्हें हृदयस्थ करना अनिवार्य है, तभी आंतरिक जीवन की असीम ऊर्जा का संचार सम्भव है । इसके माध्यम से ही मानवता के साथ नैतिकता का समावेश किया जा सकता है । नैतिक शक्ति मानव में मनुष्यता को कायम रखती है, जिसके द्वारा मानव सार्वभौमिक बनकर कल्याणकारी भावना के प्रति उत्प्रेरित होता है ।
आंतरिक व्यक्तित्व के विकास द्वारा ही मनुष्य मानव विभूतियों से परिपूर्ण होता है । भरत परिजात जी ने सत्य ही कहा है –
” जो आत्मशक्ति का अनुशरण करके संघर्ष करता है, उसे महान विजय अवश्य मिलती है ।”
व्यक्ति अन्तर्मन, अन्तर्दृष्टि तथा अन्तःकरण के आधार पर ही बाह्य आचरण करता है । हम अपने भीतर आंतरिक जीवन के आधार पर ही चलते हैं । अन्तर्दृष्टि समृद्ध होने पर ही हम दूसरो को बेहतर समझ सकते है । जीवन की वास्तविक सफलता के लिए आंतरिक क्षमता बेहद जरूरी है । वास्तविकता तो यह है कि बाह्य क्षमता के सारे प्रदर्शन खोखले एवं आधार विहीन होते हैं । दृष्टि से ही सकारात्मक सृष्टि बनती है । अतः जीवन में आंतरिक दृष्टिकोण का बड़ा महत्व है ।
जीवन कितना भी निष्ठुर एवं कठोर क्यूँ न हो, मनुष्य की वैचारिक प्रबलता के समक्ष सब असहाय है । व्यक्ति यदि विचार कर ले कि उसे जीवन में सर्वोच्य शिखर का वरण करना है, तो निश्चय ही असम्भव सम्भव में परिणत हो जाता है । हाँ यह जरूर है कि जो भी संकल्प लिया जाए या जो भी प्रण किया जाए, उसमें इमानदार प्रयास का होना अत्यंत आवश्यक है ।
महान विचारक एफ वाई रार्ब्टशन ने भी बिल्कुल सटीक कहा था – ” It is not the situation which makes the man, but man makes the situation. The slave may be free man, the monarch may be slave ”
अर्थात् ” स्थिति एवं दशा मनुष्य का निर्माण नहीं करती, अपितु मनुष्य ही स्थिति का निर्माण करता है । एक दास स्वतंत्र व्यक्ति हो सकता है और सम्राट एक दास बन सकता है । ”
वह व्यक्ति जिसका आंतरिक जीवन सुचितापूर्ण नहीं है, वह पशु समान है । वह परिस्थितियों का गुलाम है और उसकी अपनी कोई व्यक्तिगत पहचान नही है । हाँ यह जरूर है कि वह येन-केन प्रकारेण कुत्ते की तरह पेट जरूर भर लेता है । वहीं दूसरी तरफ ऐसा व्यक्ति जिसका अन्तःकरण पवित्र है , वह जीवन में आने वाली सभी बाधाओं को नजरअंदाज करके सभ्य समाज के निर्माण का भागीदार बनकर राष्ट्रोन्नयन द्वारा ” वसुधैव कुटुम्बकम् ” की संकल्पना को सार्थक रूप प्रदान करता है ।
रामकृष्ण, ईशामसीह, मुहम्मद साहब, कबीर, सूर, तुलसी, अरस्तु, नेलसन मण्ड़ेला, मदर टेरेसा, स्वामी विवेकानन्द एवं गाँधी जी आदि इस संकल्पना के प्रमाण हैं । हाँ यह जरूर हुआ कि इनमें से किसी को फाँसी पर लटका दिया गया, तो किसी की हत्या कर दी गई, तो किसी को जेल में ड़ाल दिया गया । फिर भी इन महान विभूतियों ने हार नहीं मानी, निरन्तर जीवन में संघर्ष करते रहे । इतना ही नही, इस धरा के गतिशील रहने तक ये अमर आत्माएँ प्रासंगिक रहेगी । इन विभूतियों से प्रेरणा लेकर मानवता की रक्षा में तत्पर रहते हुए मानव कल्याण करना तथा उसके प्रति सच्ची श्रद्धा होनी आवश्यक है ।
वास्तविक जीवन बाह्य नहीं आंतरिक होता है । जिसका अन्तः जितना ही स्वच्छ, पवित्र, परोपकारी, प्रेमपूर्ण तथा प्रशन्न होगा । उसका जीवन उतना ही उत्कृष्ट माना जाएगा । इसके विपरीत जिसका अन्तः मलिन, स्वार्थी, छली तथा असन्तुष्ट होगा । यहाँ तक कि उसके पास क्यूँ न कुबेर का भंड़ार हो और क्यूँ न वह इन्द्र जैसा भोग- विलास से पूर्ण विभ्रामक जीवन जी रहा हो । वह पशुवत ही समझा जाएगा । जीवन की उत्कष्टता का मूल्यांकन बाह्य से नहीं बल्कि अन्दर से किया जाएगा ।
व्यक्तित्व का निर्माण व्यक्ति की आंतरिक कृतित्व की बुनियाद पर होता है । जिस पर वह भावी जीवन का सुनहरा भविष्य रचता है । यदि व्यक्ति का आन्तरिक जीवन खूबसूरत, सद्गुण युक्त, सुविचार, स्वतंत्र, प्रतिभावान न हुआ तो बाह्य जगत में वह इंसान पशुवत जीवन जीता है । आंतरिक मजबूती दासवत जीवन से मुक्ति दिलाने से जहाँ कुँजी सिद्ध होती है, वहीं अन्तः कमजोरी जैसे – ईष्या, लोभ, मोह, मद्, क्रोध, मत्सर, ये छः अन्तःशत्रु व्यक्तित्व निर्माण में काले धब्बे का कार्य करते हैं । सुखद् जीवन के लिए हेनरी फेड़रिक इसे बेड़ी मानते थे ।
योग प्रवर्तक महर्षि पतंजलि जी ने भी कहा है – ” स्वतंत्र जीवन ही सुखद जीवन की रचना कर सकता है । इसलिए आत्मबली होकर जीवन यापन करना चाहिए । ”
प्रकृति का अनुपम विधान ब्रह्माण्ड़ और उसकी अनुपम कृति मानव है । भूतल पर प्रकृति द्वारा सभी वस्तुएँ प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से उसी के निमित्त है । इनका अनुकूलम उपयोग करके मानव कल्याण सम्भव है । अगर आज सारी दुनियॉ उद्दाम भोगवादी कार्यों से ग्रस्त है, तो यह महान चिंता का विषय है । विश्व गुरू का दर्जा प्राप्त भारत भी आज इससे अछूता नहीं है । आज का मानव भागने और दोड़ने के अन्तर को भूल गया है । आज सारी दुनियॉ की निगाह दुरूह छेत्र अंटार्कटिका पर लगी है । आज का मानव खतरनाक मोड़ पर खड़ा है, जो अधिक पाने की होड़ में दिन-रात लगा है । जोकि मानवता के लिए यह बिल्कुल भी शुभ संकेत नहीं है । वर्तमान परिवेश में यह आशावादी किरण दुनियॉ के तमाम देशों की मिशनरियाँ – रामकृष्ण, रामचन्द्र के साथ साथ आर्य समाज, गायत्री परिवार, मानव कल्याण सेवा संस्थान एवं अन्य निरंतर चिंतनशील होकर मानवता की रक्षा के साथ साथ कल्याण के प्रति सजग हैं ।
वाशिंगटन इराविन ने भी कहा है – ” Little minds are tamed and subdued by misfortune but great minds are rise about it ”
ऊपर वर्णित विश्लेषण के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि समय के माँग के परिप्रेक्ष्य अमन, सुख, शान्ति हेतु उद्दाम भोगवाद से बचकर समझ का सहारा लेते हुए प्राणियों को ” माता भूमिः पुत्रोअहं पृथिव्याः ” की भावना से ओतप्रोत होकर वसुधैव कुटुम्बकम् को ध्यान में रखते हुए मानव कल्याणकारी भावना द्वारा मानवता की रक्षा करना हम सबको धर्म समझना चाहिए । जोकि अध्यात्मिक सोच एवं प्राच्य दर्शन से ही सम्भव है ।
अस्तु सर्वविदित है कि व्यक्ति का अच्छा जीवन ही अच्छे पल की रचना कर सकता है । अतः हम स्वयं परिस्थितियों को अनुकूल या प्रतिकूल बनाते है । बुरा जीवन व कार्य व्यक्ति को पतन की गहरी खाईं में ढ़केलकर परतंत्र जीवन जीने के लिए विवश कर देता है । अतः यह कहना सार्थक है कि –
“पोथी पढ़ पढ़ जगमुआ, पण्ड़ित भया न कोय ।
ढ़ाई आखर प्रेम का , पढ़ै सो पण्ड़ित होय ।। “