धरती रोती है
पीर ढो रही पल-पल, धरती रोती है।
नीर खो रही जल-जल, धरती रोती है।
डेरा डाले, ठाठ-बाठ से, बागों में
हँसते हैं जब मरु-थल, धरती रोती है।
भरी बोतलों को, जब सूने नैन उठा
तकते हैं घट निर्जल, धरती रोती है।
जाने कब फिर गले मिलें, पर्वत-झरने
सोच-सोच कर बेकल, धरती रोती है।
पूछा करते, सून पोखरों से जब वे
कहाँ जाएँ हम शतदल, धरती रोती है।
जब-जब नज़र आता उसको सावन में भी
अपना निचुड़ा आँचल, धरती रोती है।
सोच-सोच है चिंतातुर, कैसे सँवरे
नई पौध का अब कल, धरती रोती है।
लौट आए मुस्कान उसकी, यदि सब ढूँढें
अब भी ‘कल्पना’ कुछ हल, धरती रोती है।
— कल्पना रामानी