क्या मोक्ष में भी कोई मुक्तात्मा दुखी व संतप्त हो सकता है?
२२ मई से २८ मई २०१६ की आर्य जगत साप्ताहिक पत्रिका में “मुक्त दयानंद मोक्ष में आर्य समाज की दुर्दशा से दुखी व संतप्त ” शीर्षक से देहरादून के श्री मनमोहन कुमार आर्य जी का लेख प्रकाशित हुआ है | लेखक जी ने लिखा है हिन्दुओ व आर्यों की वैदिक धर्म के प्रति उपेक्षा को देखकर ऋषि दयानंद व गुरुवर विरजानन्द मोक्ष में अवश्य खून के आंसू पीते होंगे |आर्य अधिकाररियों के पास अवश्य आते जाते होंगे व हर्ष शोक करते होंगे ……..|परस्पर के संघर्ष को देख अवश्य ही दु:खी होते होंगे |लेखक श्री आर्य जी ने सर्व श्री स्वामी श्रद्धानंद , पंडित गुरूदत्त विद्यार्थी, महाशय राजपाल, पंडित लेख्रराम, स्वामी दर्शनानंद, स्वामी वेदानन्द,आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी आदि आदि के मोक्ष की सम्भावना व्यक्त की है और आर्यों के वर्तमान कालिक आचरणों को देख ये सब भी दुखी होते होंगे ऐसा लिखा है |
हमारे मित्र श्री मनमोहन कुमार जी के बारे में यह प्रसिद्धि है कि आप प्रतिदिन एक लेख लिखते है | आपके अनेक लेखो को मेल व आर्य पत्रिकाओ में अनेको बार पढने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है अत : हम आप के प्रशंसक भी है पर आर्यों को प्रेरणा देने के उत्तम भावो के वशीभूत हो आप ने जो लिखा उस विषय में हमारा इतना ही निवेदन है कि ऋषि दयानंद के अतिरिक्त ऊपरी लिखित सभी आर्य महानुभाव, आर्य विद्वान, व आर्य नेतृगण जिनको आपने मोक्ष का पात्र माना है, उनका वैदिक संस्कृति के रक्षण प्रचार प्रसार में अप्रतिम अद्वितीय योगदान दिया है इसमें तो कोई २ मत नहीं है पर असम्प्रज्ञात समाधि व विदेह स्थिति प्राप्त कर ये सभी मोक्ष प्राप्त कर चुके होंगे प्रथम दृष्टया ऐसा लगता नहीं है |दूसरा निवेदन है मोक्ष प्राप्ति के उपरांत विभिन्न स्थलों पर विचरण करने की बात तो स्वीकार की भी जा सकती है पर मुक्त आत्माओं का दुखी व संतप्त होना सिद्धांत विरुद्ध सा लगता है |मोक्षप्राप्ति के लिए जिस योग मार्ग पर चलकर साधक अध्यात्म की उंचाईयों पर चढ़ता है उस सम्बन्ध में बात करें |
योग दर्शन के विभूति पाद के ५१ वे सूत्र “स्थान्युप निमंत्रणे संगस्मयाकरण पुनः अनिष्ट प्रसंगात् ” के भाष्य में महर्षि व्यास जी ने ४ प्रकार के योगियों का वर्णन किया है प्राथमकल्पिक , मधुभूमिक, प्रज्ञाज्योति व अतिक्रान्त भावनीय | इसमें तृतीय श्रेणी के योगी प्रज्ञाज्योति के लिए ” भूतेन्द्रिय जयी सर्वेषु भावितेषु भावनीयेषु कृत रक्षाबन्ध : कर्तव्य साधनादिमान कहा है मुक्ति से पूर्व ही योगी को यह अवस्था प्राप्त हो जाती है कि वह किसी भी प्रकार की आसक्ति से बचने के लिए दृढ़ अभ्यासी हो चुका होता है | अब उसके संसार की बातो से सुखी दुखी होने की कोई संभावना ही नहीं रहती है | दूसरी श्रेणी के ऋतंभरा प्रज्ञा प्राप्त योगी का एक बार के लिए माना भी जा सकता है जैसा सूत्र में भी आया है पर ऐसा विवेक ख्याति के उपरान्त धर्ममेध समाधि प्राप्त अकुसीद योगी ( योगदर्शन कैवल्य २९ ) के लिए नहीं है | किसी संस्था या व्यक्ति के किसी उत्थान पतन को देखकर यथोचित व्यवस्था करना एक बात है और दुखी वा संतप्त होना अलग बात |जब सशरीर आत्मा में ही यह उन्नत अवस्था हो चुकी होती है तो मोक्ष में तो असम्भव ही है |
भिद्यते हृदय ग्रन्थि:, छिद्यन्ते सर्व संशया:| क्षीयन्ते चास्य कर्माणि, तस्मिन् दृष्टे परावरे || (मुण्डकोपनिषद २/१/१८ )