सामाजिक

सफलता के आधारभूत कारण

सफलता प्रत्येक मानव के जीवन का ध्येय है। हर व्यक्ति सफल होना चाहता है। जिसे धन में रूचि में वो धन अर्जित करने में, जिसे पद में रूचि है वो पद अर्जित करने में, जिसे कला में रूचि है वो कला में निपुणता अर्जित करने का प्रयास करता है। परंतु प्रायः ये देखा गया है कि हजारों लोग किसी विशेष कार्य को करने का प्रयास करते हैं परंतु सफल कुछेक व्यक्ति ही होते हैं। बाकियों के हाथ असफलता ही लगती है। आखिर ऐसा क्यों? जब प्रत्येक व्यक्ति उस सर्वशक्तिमान ईश्वर की ही रचना है तो सब समान रूप से सफल क्यों नहीं हो पाते? क्यों ऐसा होता है कि एक ही मार्ग पर हजारों व्यक्ति निकलते हैं परंतु लक्ष्य तक ऊंगलियों पर गिनने लायक व्यक्ति ही पहुंच पाते हैं। इसका उत्तर कहीं बाहर नहीं हमारे भीतर ही छिपा हुआ है एवं वो उत्तर है इच्छाशक्ति की कमी और प्रयास में सातत्य की कमी। सबसे पहले तो आप ये समझ लीजिए कि यदि आप कोई कार्य का आरंभ नकारात्मक अभिगम से करते हैं तो उस कार्य में सफलता की संभावना न के बराबर रह जाती है। यदि कोई कार्य शुरू करने से पहले ही आपके मन में संशय है कि ये तो बहुत मुश्किल है मैं नहीं कर पाऊँगा या पता नहीं कर पाऊँगा या नहीं तो प्रायः वो कार्य आपसे पूर्ण नहीं होता। इसके विपरीत यदि आप किसी भी कार्य का आरंभ सकारात्मक अभिगम से करते हैं, ये सोच कर करते हैं कि मैं अवश्य इस कार्य को पूर्ण कर सकता हूँ एवं उसके लिए उपयुक्त योजना बनाते हैं तो आप के द्वारा उस कार्य को पूर्ण करने की संभावनाएँ कई गुना बढ़ जाती हैं। मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है। उसके मन में अपार शक्ति है। इस शक्ति का यदि आप उचित प्रयोग करें तो आपके लिए संसार का कोई भी कार्य असंभव नहीं हो सकता।
परंतु कई बार ऐसा होता है कि हम कोई कार्य बड़े उत्साह के साथ, बड़े सकारात्मक अभिगम के साथ शुरू करते हैं फिर भी हम निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचने में असफल रहते हैं। प्रायः ऐसे समय में हम भाग्य को दोष देने लगते हैं या अपने मित्रों या शत्रुओं को दोष लगते हैं कि किसी व्यक्ति विशेष या समूह के द्वारा अड़चन डालने से हमारा कार्य सिद्ध नहीं हो पाया। परंतु उसका वास्तविक कारण होता है प्रयास की कमी। किसी भी कार्यसिद्धि के लिए जितनी महत्वपूर्ण सही योजना बनाना है उतना ही महत्वपूर्ण उस योजना को सही ढंग से लागू करना भी है। आपकी योजना कितनी भी अच्छी हो यदि वो सही तरीके से अमल में नहीं लाई जाएगी तो उसका कोई लाभ नहीं होगा। बहुत बार हम अपने अधीनस्थ कर्मचारियों या अपने मित्रों या परिवार जनों पर ये उत्तरदायित्व डाल देते हैं। परंतु आप ये स्मरण रखिए कि यदि स्वप्न आपके हैं तो उन्हें पूर्ण करने में श्रम भी आप ही को करना पड़ेगा। कोई और मृत्यु को प्राप्त हो और आपको स्वर्ग का आनंद मिल जाए ये असंभव है। यदि आपको स्वर्ग का आनंद चाहिए तो स्वयं ही मरना पड़ेगा। अन्य व्यक्ति आपके सहायक की भूमिका अवश्य निभा सकते हैं परंतु नेतृत्व का उत्तरदायित्व तो आपको स्वयं ही वहन करना होगा।
इसके बाद भी कई व्यक्तियों को शिकायत होती है कि हम उचित योजना बनाकर प्रयास करने के बाद भी लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाए। उसका कारण है प्रयासों में सातत्य का अभाव। जितना बड़ा लक्ष्य होगा वो उतना ही अधिक निरंतर प्रयास माँगेगा। किसी ईंट को तोड़ने के लिए हथौड़े की एक चोट ही पर्याप्त है परंतु किसी चट्टान को तोड़ने के लिए उस पर सतत प्रहार अति आवश्यक है। यदि वो चट्टान सौवें प्रहार पर टूटती है तो इसका अर्थ ये नहीं कि पहले निन्यानवे प्रहार व्यर्थ हो गए। उस पहले प्रहार की महत्ता भी उतनी ही है जितनी सौवें प्रहार की। कहीं सुना था कि एक गांव के लोग पानी की कमी से परेशान थे। एक संत अपनी यात्रा के दौरान उस गांव में आए। गांववासियों की प्रार्थना पर उन्होंने अपनी दिव्यदृष्टि से देखा और कहा कि गांव की उत्तर दिशा में धरती के नीचे पानी का स्त्रोत है आप खुदाई करिए तो आपकी जल समस्या सदा के लिए दूर हो जाएगी। ऐसा कहकर संत आगे की ओर प्रस्थान कर गए। कुछ समय बाद यात्रा से लौटते हुए उसी गांव में उनका आना हुआ तो उन्होंने देखा कि गांववासी तो पहले की भाँति ही परेशान हैं। जब उन्होंने कारण पूछा तो गांववासी उल्टा उन्हें ही भला-बुरा कहने लगे कि आपने हमें मूर्ख बनाया। हमने आपके कथनानुसार गांव का पूरा उत्तरी भाग खोद डाला परंतु पानी नहीं मिला। जब संत ने वहां जाकर देखा तो खड्डे ही खड्डे थे। कोई दस फीट गहरा, कोई पंद्रह, कोई बीस। गांववासियों ने एक जगह थोड़ा सा खोदा, वहां नहीं मिला तो दूसरी जगह, वहां नहीं मिला तो तीसरी जगह। संत हंसने लगे और उन्होंने कहा कि तुम लोगों ने सब मिला कर तीन-चार सौ फीट खोदा है यदि इसके बदले एक ही जगह पर सौ फीट भी खोदा होता तो पानी अवश्य मिलता। हम भी प्रायः अपने जीवन में ऐसा ही करते हैं और अंत में कहीं भी नहीं पहुंच पाते। संस्कृत में एक श्लोक है
एको देवः केशवो वा शिवो वा एकं मित्रं भूपतिर्वा यतिर्वा।

एको वासः पत्तने वा वने वा एका नारी सुन्दरी वा दरी वा ।।

अर्थात एक ही देव को ग्रहण करना चाहिए, वे केशव हों या शिव, एक ही मित्र बनाना चाहिए, राजा हो या तपस्वी, एक ही जगह वास करना चाहिए, नगर हो या वन और एक ही सुन्दरी से प्रीति हो या कन्दरा से । द्वैत भाव से मनुष्य का कल्याण सम्भव नहीं है, इसलिए निश्चयपूर्वक एक ही प्रकार का मार्ग अपनाना चाहिए। आप भी यदि अपने जीवन में एक ही लक्ष्य के प्रति पूर्ण विश्वास से मेहनत करें तो कोई कारण नहीं कि आपको सफलता न मिले। भाग्य, परिस्थितियाँ सब आलसियों के बहाने हैं। भाग्य हमेशा श्रम का साथ देता है एवं परिस्थितियाँ सदा मेहनत के आधीन होती हैं। इसलिए लक्ष्य निर्धारित करें, स्पष्ट योजना बनाएँ एवं जी-जान से श्रम करें, सफलता अवश्य आपके कदम चूमेगी।

मंगलमय दिवस की शुभकामनाओं सहित आपका मित्र :- भरत मल्होत्रा

*भरत मल्होत्रा

जन्म 17 अगस्त 1970 शिक्षा स्नातक, पेशे से व्यावसायी, मूल रूप से अमृतसर, पंजाब निवासी और वर्तमान में माया नगरी मुम्बई में निवास, कृति- ‘पहले ही चर्चे हैं जमाने में’ (पहला स्वतंत्र संग्रह), विविध- देश व विदेश (कनाडा) के प्रतिष्ठित समाचार पत्र, पत्रिकाओं व कुछ साझा संग्रहों में रचनायें प्रकाशित, मुख्यतः गजल लेखन में रुचि के साथ सोशल मीडिया पर भी सक्रिय, सम्पर्क- डी-702, वृन्दावन बिल्डिंग, पवार पब्लिक स्कूल के पास, पिंसुर जिमखाना, कांदिवली (वेस्ट) मुम्बई-400067 मो. 9820145107 ईमेल- [email protected]