ग़ज़ल
तैरते हैं जो लोग बीच धारे में
डूबते हैं वो अक्सर किनारे में
नहीं निकाले तीरो-खंजर कभी
जां-ब-हक हुए इक इशारे में
न छेड़िए ये गर्दो गुब्बारे को कभी
है आग दबी यहाँ हरेक शरारे में
सस्ती नहीं अब यहां कोई शय
धोखे-ही-धोखे हैं, हरेक नजारे में
तलाशते रोज खामियां हजारों में
पर ऐब हैं सब जाहिर हमारे में
— डा तारिक असलम तस्नीम, पटना