धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

धर्म के विषय में भ्रांतियाँ और उनका निवारण

मेरे कुछ मित्रों द्वारा धर्म विषय पर अनेक शंकाएँ प्रस्तुत कि गई हैं। जिनका समाधान करना अत्यंत आवश्यक हैं क्यूंकि शंका का निवारण न होना अज्ञानता को जन्म देता हैं और अज्ञानता मनुष्य को पाप कर्म में सलिंप्त करती हैं। और पापी व्यक्ति देश, धर्म और जाति के लिए अहितकारक होता हैं। उनकी शंकाएँ और उनका समाधान इस प्रकार हैं
 
शंका 1:- धर्म का अर्थ क्या हैं?
 
उत्तर-
१. धर्म संस्कृत भाषा का शब्द हैं जोकि धारण करने वाली धृ धातु से बना हैं। “धार्यते इति धर्म:” अर्थात जो धारण किया जाये वह धर्म हैं। अथवा लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु सार्वजानिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना धर्म हैं। दूसरे शब्दों में यहभी कह सकते हैं की मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल जो शुद्ध सार्वजानिक मर्यादा पद्यति हैं वह धर्म हैं।
 
२. जैमिनी मुनि के मीमांसा दर्शन के दूसरे सूत्र में धर्म का लक्षण हैं लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु गुणों और कर्मों में प्रवृति की प्रेरणा धर्म का लक्षण कहलाता हैं।
 
३. वैदिक साहित्य में धर्म वस्तु के स्वाभाविक गुण तथा कर्तव्यों के अर्थों में भी आया हैं। जैसे जलाना और प्रकाश करना अग्नि का धर्म हैं और प्रजा का पालन और रक्षण राजा का धर्म हैं।
 
४. मनु स्मृति में धर्म की परिभाषा
 
धृति: क्षमा दमोअस्तेयं शोचं इन्द्रिय निग्रह:
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं ६/९
अर्थात धैर्य,क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी त्याग, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म के दस लक्षण हैं।
 
दूसरे स्थान पर कहा हैं आचार:परमो धर्म १/१०८ अर्थात सदाचार परम धर्म हैं
 
५. महाभारत में भी लिखा हैं
 
धारणाद धर्ममित्याहु:,धर्मो धार्यते प्रजा: अर्थात जो धारण किया जाये और जिससे प्रजाएँ धारण की हुई हैं वह धर्म हैं।
६. वैशेषिक दर्शन के कर्ता महा मुनि कणाद ने धर्म का लक्षण यह किया है-
यतोअभयुद्य निश्रेयस सिद्धि: स धर्म:
अर्थात जिससे अभ्युदय(लोकोन्नति) और निश्रेयस (मोक्ष) की सिद्धि होती हैं, वह धर्म हैं।
 
शंका 2:- स्वामी दयानंद के अनुसार धर्म कि क्या परिभाषा हैं?
 
उत्तर:- जो पक्ष पात रहित न्याय सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार हैं उसी का नाम धर्म और उससे विपरीत का अधर्म हैं।-सत्यार्थ प्रकाश ३ सम्मुलास
पक्षपात रहित न्याय आचरण सत्य भाषण आदि युक्त जो ईश्वर आज्ञा वेदों से अविरुद्ध हैं, उसको धर्म मानता हूँ – सत्यार्थ प्रकाश मंतव्य
इस काम में चाहे कितना भी दारुण दुःख प्राप्त हो , चाहे प्राण भी चले ही जावें, परन्तु इस मनुष्य धर्म से पृथक कभी भी न होवें।- सत्यार्थ प्रकाश
शंका 3:- क्या हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि धर्म सभी समान हैं अथवा भिन्न हैं? धर्म और मत अथवा पंथ में क्या अंतर हैं?
 
उत्तर: -हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि धर्म नहीं अपितु मत अथवा पंथ हैं। धर्म और मत में अनेक भेद हैं।
१. धर्म ईश्वर प्रदत हैं और जिसे ऊपर बताया गया हैं, बाकि मत मतान्तर हैं जो मनुष्य कृत हैं।
२. धर्म लोगो को जोड़ता हैं जबकि मत विशेष लोगो में अन्तर को बढ़ाकर दूरियों को बढ़ावा देते हैं।
३. धर्म का पालन करने से समाज में प्रेम और सोहार्द बढ़ता हैं, मत विशेष का पालन करने से व्यक्ति अपने मत वाले को मित्र और दूसरे मत वाले को शत्रु मानने लगता हैं।
४. धर्म क्रियात्मक वस्तु हैं मत विश्वासात्मक वस्तु हैं।
५. धर्म मनुष्य के स्वाभाव के अनुकूल अथवा मानवी प्रकृति का होने के कारण स्वाभाविक हैं और उसका आधार ईश्वरीय अथवा सृष्टि नियम हैं परन्तु मत मनुष्य कृत होने से अप्राकृतिक अथवा अस्वाभाविक हैं।
६. धर्म एक ही हो सकता हैं , मत अनेक होते हैं।
७. धर्म सदाचार रूप हैं अत: धर्मात्मा होने के लिये सदाचारी होना अनिवार्य हैं। परन्तु मत अथवा पंथ में सदाचारी होना अनिवार्य नहीं हैं।
८. धर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनाता हैं अथवा धर्म अर्थात धार्मिक गुणों और कर्मों के धारण करने से ही मनुष्य मनुष्यत्व को प्राप्त करके मनुष्य कहलाने का अधिकारी बनता हैं जबकि मत मनुष्य को केवल पन्थाई या मज़हबी अथवा अन्धविश्वासी बनाता हैं। दूसरे शब्दों में मत अथवा पंथ पर ईमान लाने से मनुष्य उस मत का अनुनायी बनता हैं नाकि सदाचारी या धर्मात्मा बनता हैं।
९. धर्म मनुष्य को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़ता हैं और मोक्ष प्राप्ति निमित धर्मात्मा अथवा सदाचारी बनना अनिवार्य बतलाता हैं परन्तु मत मुक्ति के लिए व्यक्ति को पन्थाई अथवा मटी का मानने वाला बनना अनिवार्य बतलाता हैं। और मुक्ति के लिए सदाचार से ज्यादा आवश्यक उस मत की मान्यताओं का पालन बतलाता हैं।
१०. धर्म सुखदायक हैं मत दुखदायक हैं।
११. धर्म में बाहर के चिन्हों का कोई स्थान नहीं हैं क्यूंकि धर्म लिंगात्मक नहीं हैं -न लिंगम धर्मकारणं अर्थात लिंग (बाहरी चिन्ह) धर्म का कारण नहीं हैं परन्तु मत के लिए बाहरी चिन्हों का रखना अनिवार्य हैं जैसे एक मुस्लमान के लिए जालीदार टोपी और दाड़ी रखना अनिवार्य हैं।
१२. धर्म दूसरों के हितों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति तक देना सिखाता हैं जबकि मज़हब अपने हित के लिए अन्य मनुष्यों और पशुयों की प्राण हरने के लिए हिंसा रुपी क़ुरबानी का सन्देश देता हैं।
धर्म और मत के अंतर को ठीक प्रकार से समझ लेने पर मनुष्य अपने चिंतन मनन से आसानी से यह स्वीकार करके के श्रेष्ठ कल्याणकारी कार्यों को करने में पुरुषार्थ करना धर्म कहलाता हैं इसलिए उसके पालन में सभी का कल्याण हैं।
 
शंका 4:- क़ुरान के समान वेदों में शत्रु का संहार करने का आदेश अनेक मन्त्रों में बताया गया हैं । आप लोग क़ुरान कि यह कहकर आलोचना करते हैं कि क़ुरान हिंसा का आदेश देता हैं, फिर वेद भी ऐसा ही सन्देश हैं तो फिर क़ुरान और वेद कि शिक्षा में क्या अंतर हैं?
 
उत्तर:- इस शंका का समाधान बहुत सरल हैं। वेद और क़ुरान दोनों शत्रु मारने आदेश देते हैं, मगर दोनों के अनुसार शत्रु भिन्न भिन्न हैं। क़ुरान के अनुसार जो इस्लाम को ना मानता हो और जो मुहम्मद साहिब को अंतिम पैगम्बर न मानता हो, वह शत्रु हैं अथवा जो आपके फिरके से अलग दूसरे फिरके का हो, वह शत्रु हैं जैसे एक शिया के लिए एक सुन्नी, एक वहाबी के लिए एक अहमदी, एक देवबंदी के लिए एक बरेलवी वगैरह वैगरह। रोजाना ईराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान , अफ़्रीकी देशों में यह बात सामान्य रूप से देखने को मिलती हैं कि इस्लाम को मानने वाले फिरके एक दूसरे के प्राण लेने में हिंसक रूप से आमादा हैं। जबकि वेदों के अनुसार शत्रु वह है जो धर्म मार्ग पर नहीं चलता, जिसके कर्म, आचार, विचार, व्यवहार उत्तम नहीं हैं, जो दुराचारी हैं, पापी हैं, दुष्ट हैं। इस्लाम के अनुसार शत्रु की परिभाषा अत्यंत संकीर्ण हैं, गैर मुस्लिम चाहे कितना भी श्रेष्ठ कार्य क्यूँ न हो, उसके विचार उत्तम से उत्तम हो, उसका आचार उत्तम से उत्तम चाहे क्यूँ न हो, मगर वह इसलिए मारने योग्य हैं, क्यूंकि वह इस्लाम को नहीं मानता और मुहम्मद पर विश्वास नहीं लाता। दुनिया में इससे संकीर्ण मानसिकता आपको कही भी देखने को नहीं मिलती। जबकि वैदिक धर्म कि यह विशेषता हैं कि चाहे कोई हिन्दू हो, चाहे मुस्लिम हो ,चाहे ईसाई हो, चाहे नास्तिक ही क्यूँ न हो अगर वह धर्म मार्ग पर चलेगा तो उसका सर्वदा कल्याण होगा। सही मायनों में वेद कि शिक्षा सारभौमिक, व्यवहारिक एवं प्रासंगिक हैं।
वेद के अनुसार शत्रु धर्म मार्ग पर न चलने वाला दुष्ट हैं जबकि क़ुरान के अनुसार शत्रु क़ुरान कि मान्यताओं को न मानने वाला हैं। जिस दिन समाज वेदों में वर्णित शत्रु और क़ुरान में वर्णित शत्रु में भेद समझ जायेगा उस दिन विश्वभर में शांति का राज हो जायेगा क्यूंकि आज मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु वह स्वयं हैं, मनुष्य का दुराचार, उसका दुष्ट व्यवहार सबसे बड़ा शत्रु हैं इसीलिए वेद इस शत्रु समाप्त करने का आदेश देता हैं। आप सुधरोगे जग सुधरेगा, आप बिगड़ोगे जग बिगड़ेगा।
 
शंका 5:- अपने आपको विद्वान कहने वाला इस्लामिक प्रचारक डॉ ज़ाकिर नायक द्वारा इस विषय में एक तर्क इस प्रकार से देता हैं कि कक्षा आठ में पढ़ने वाले एक छात्र का उदहारण लीजिये। अगर वह पाँच विषय में से चार में १००/१०० और एक विषय में अनुतीर्ण हो जाये तो क्या आप उसे उतीर्ण कहेगे? नहीं ना, बस ऐसा ही इस्लाम को न मानने वाले किसी भी व्यक्ति के साथ हैं, चाहे वह कितना भी उत्तम कर्म करता हो, चाहे कितना भी श्रेष्ठ उसका आचरण हो मगर वह इस्लाम को नहीं मानता और अंतिम पैगम्बर मुहम्मद साहिब पर विश्वास नहीं लाता इसलिए वह अनुतीर्ण कहलायेगा।
 
उत्तर:- डॉ ज़ाकिर नायक के कुतर्क पर मुझे हँसी आती हैं। यह कुछ ऐसा हैं कि मुदद्दई भी तुम और गवाह भी तुम। एक बात बताओ इस्लामिक मत कि स्थापना और मुहम्मद के जन्म लेने से पहले क्या कोई धार्मिक ही नहीं था या फिर ऐसा था कि तब आठवीं कक्षा के छात्र के लिए विषय ही चार होते थे पाँचवा विषय ही नहीं था। सत्य यह है कि धर्म यानि कि श्रेष्ठ आचरण तो तभी से हैं जबसे मनुष्य कि उत्पत्ति हुई हैं और ज़ाकिर नायक के साथ-साथ विश्व के सभी विद्वान यह स्पष्ट रूप से मानते हैं कि विश्व का सबसे प्रथम ईश्वरीय ज्ञान अथवा इल्हाम अगर कोई हैं तो वह वेद ही हैं और ईश्वरीय ज्ञान का विशेष गुण भी यही हैं कि वह अपने आप में पूर्ण होता हैं, सृष्टि के आदि से लेकर अंत तक वह एक समान रहता हैं, उसमें किसी भी प्रकार के परिवर्तन करने कि आवश्यकता नहीं हैं क्यूंकि उस ज्ञान को प्रदान करने वाला ईश्वर हैं। वेद स्पष्ट रूप से आचरण को परम धर्म कहता हैं जैसा ऊपर शंका में बताया गया हैं। इसलिए यह केवल एक भ्रान्ति भर हैं कि केवल इस्लाम को मानने वाला धार्मिक हैं, बाकि सब अधार्मिक। इस्लाम को मानने वाला जन्नत में जायेगा, बाकि सब के सब दोजख़ में जायेगे।
 
शंका 6:- क्या धर्म अफीम हैं जैसा कि कार्ल मार्क्स ने बताया हैं?
उत्तर:- कार्ल मार्क्स ने धर्म के स्थान पर मत को धर्म का स्वरुप समझ लिया। जैसा उन्होंने देखा और इतिहास में पढ़ा उसको देख कर तो हर कोई धर्म के विषय में इसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा जैसा मार्क्स ने बतलाया। उन्होंने अपने चारों और क्या देखा? मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा यूरोप, एशिया में इस्लाम के नाम पर भयानक तबाही, चर्च के अधिकारीयों द्वारा धर्म के नाम पर सामान्य जनता पर अत्याचार को देखने पर उनका धर्म से विश्वास उठ गया और उन्होंने धर्म को अफीम कि संज्ञा दे दी क्यूंकि अफीम ग्रहण करने के पश्चात जैसे मनुष्य को सुध-बुध नहीं रहती वैसा ही व्यवहार धर्म के नाम पर मत को मानने वाले करते हैं। धर्म अफीम नहीं हैं अपितु उत्तम आचरण हैं, इसलिये धर्म को अफीम कहना गलत हैं, मत को अफीम कहने में कोई बुराई नहीं है।
डॉ विवेक आर्य