गज़ल
तलाश-ए-ज़िंदगी में मैं हर रोज़ निकलता हूँ,
सुबह सा खिलता हूँ कभी शाम सा ढलता हूँ,
शौक-ए-सफर ने मेरे रूकने ना दिया मुझको,
कहीं बारिशों में भीगूँ कहीं धूप में जलता हूँ,
तेरा आईना-ए-दिल हूँ मेरा रूप-रंग तुझसे,
तू खफा तो मैं बुझा सा खुश है तो निखरता हूँ,
तू मुझमें यूँ बसा है कोई गुल हो ज्यों सहरा में,
तेरी यादों की खुशबू से दिन-रात महकता हूँ,
जुल्फों के पेच-ओ-ख़म का तिलिस्म है ये कैसा,
बचता हूँ इनसे जितना उतना ही उलझता हूँ,
आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।