दिवाली और पटाखे
दिये की रौशनी में अंधेरों को भागते देखा
अपनी खुशियों के लिए बचपन को रुलाते देखा।
दीवाली की खुशियां होती हैं सभी के लिए,
वही कुछ बच्चों को भूख से सिसकते देखा ।
दिए तो जलाये पर आस पास देखना भूल गए
चंद सिक्कों के लिए बचपन को भटकते देखा।
क्या होली क्या दिवाली माँ बाप के प्यार से महरूम
कुछ मासूम को अकेले मे बिलखते देखा ।
जल रहा था दिल मेरा देखकर जलते हुए पटाखों को
लगायी थी कल ही दुत्कार सिर्फ एक रोटी के लिए
आज उसी धनवान को नोटों को जलाते देखा ।
मनाकर तो देखो दिवाली को एक नए अंदाज में पाकर
कुछ नए उपहार मासूमों को मुस्कराते देखा ।
“दिये तो जलाओ पर इतना याद रहे
अँधेरा नहीं जाता सिर्फ दीये जलाने से ।
क्यों न इस दिवाली पर कुछ नया कर जाएँ
उठाकर एक अनौखी शपथ
न रहे धरा पर कोई भी भूखा हमारे आस पास
चलो मिलकर त्यौहार का सही मतलब बता जाएँ ।।”
देखो देखो आयी न चेहरे पर कुछ मुस्कराहट
आज सदियों बाद त्यौहार को समझते देखा ।।
— वर्षा वार्ष्णेय, अलीगढ़